बाबा नागार्जुन
बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है. वैसे, यदि जरा और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है. उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है. उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है. उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है. नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं. |
बाबा नागार्जुन ने जब लिखना शुरू किया था तब हिन्दी साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहाँ से अचानक तेज ढलान शुरू हो जाती है, और जब उन्होंने लिखना बंद किया तब काव्य जगत में सभी प्रकार के वादों के अंत का दौर चल रहा था. बाबा अपने जीवन और सर्जन के लंबे कालखंड में चले सभी राजनीतिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे, कुछ से संबद्ध भी हुए, पर आबद्ध वह किसी से नहीं रहे. उनके राजनीतिक ‘विचलनों’ की खूब चर्चा भी हुई. पर कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये तथाकथित ‘विचलन’ न सिर्फ जायज थे बल्कि जरूरी भी थे. वह जनता की व्यापक राजनीतिक आकांक्षा से जुड़े कवि थे, न कि मात्र राजनीतिक पार्टियों के संकीर्ण दायरे में आबद्ध सुविधाजीवी कामरेड. कोई राजनीतिक पार्टी जब जनता की राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति के मार्ग से विचलित हो जाए तो उस राजनीतिक पार्टी से ‘विचलित’ हो जाना विवेक का सूचक है, न कि ‘विपथन’ का. प्रो. मैनेजर पांडेय ने सही टिप्पणी की है कि |
एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं. इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं. जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं. नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है…..यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं. |
अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ” में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है- |
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ! |
नागार्जुन का संपूर्ण काव्य-संसार इस बात का प्रमाण है कि उनकी यह प्रतिबद्धता हमेशा स्थिर और अक्षुण्ण रही, भले ही उन्हें विचलन के आरोपों से लगातार नवाजा जाता रहा. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद चलते बने. पर बाबा की कविता इनमें से किसी ‘चौखटे’ में अँट कर नहीं रही, बल्कि हर ‘चौखटे’ को तोड़कर आगे का रास्ता दिखाती रही. उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जन’ से ग्रहण करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की लीक का निर्माण किया. इसीलिए बदलते हुए भावबोध के बदलते धरातल के साथ नागार्जुन को विगत सात दशकों की अपनी काव्य-यात्रा के दौरान अपनी कविता का बुनियादी भाव-धरातल बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई. “पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने” जैसी कविता में ‘बाबा का काव्यात्मक डेविएशन’ भी सामान्य जनोचित है और असल में, वही उस कविता के विशिष्ट सौंदर्य का आधार भी है. उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. जरा इन दोनों कविताओं की एक-एक बानगी देखें- |
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
– उनको प्रणाम! |
और ‘अपने खेत में’ कविता का यह अंश देखें- |
अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!! |
बाबा की कविताएँ अपने समय के समग्र परिदृश्य की जीवंत एवं प्रामाणिक दस्तावेज हैं. उदय प्रकाश ने सही संकेत किया है कि बाबा नागार्जुन की कविताएँ प्रख्यात इतिहास चिंतक डी.डी. कोसांबी की इस प्रस्थापना का कि ‘इतिहास लेखन के लिए काव्यात्मक प्रमाणों को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए’ अपवाद सिद्ध होती हैं. वह कहते हैं कि ‘हम उनकी रचनाओं के प्रमाणों से अपने देश और समाज के पिछले कई दशकों के इतिहास का पुनर्लेखन कर सकते हैं.’ कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह का दावा बीसवीं सदी के किसी भी दूसरे हिन्दी कवि के संबंध में नहीं किया जा सकता, स्वयं निराला के संबंध में भी निश्चिंत होकर नहीं. बाबा को अपनी बात कहने के लिए कभी आड़ की जरूरत नहीं पड़ी और उन्होंने जो कुछ कहा है उसका संदर्भ सीधे-सीधे वर्तमान से लिया है. उनकी कविता कोई बात घुमाकर नहीं कहती, बल्कि सीधे-सहज ढंग से कह जाती है. उनके अलावा, आधुनिक हिन्दी साहित्य में इस तरह की विशेषता केवल गद्य-विधा के दो शीर्षस्थ लेखकों, आजादी से पूर्व के दौर में प्रेमचन्द और आजादी के बाद के दौर में हरिशंकर परसाई, में रेखांकित की जा सकती है. बाबा की कविताओं में यह खासियत इसीलिए भी आई है कि उनका काव्य-संघर्ष उनके जीवन-संघर्ष से तदाकार है और दोनों के बीच किसी ‘अबूझ-सी पहेली’ का पर्दा नहीं लटका है मुक्तिबोध की कविताओं के विचार-धरातल की तरह. उनका संघर्ष अंतर्द्वंद्व, कसमसाहट और अनिश्चितता भरा संघर्ष नहीं है, बल्कि खुले मैदान का, निर्द्वन्द्व, आर-पार का खुला संघर्ष है और इस संघर्ष के समूचे घटनाक्रम को बाबा मानो अपनी डायरी की तरह अपनी कविताओं में दर्ज करते गए हैं. |
बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है. यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है. हालाँकि उनकी कविताओं की ‘तात्कालिकता’ के कारण उसे अखबारी कविता कहकर खारिज करने की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन असल में, यदि एजरा पाउंड के शब्दों में कहें तो नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर (news) है जो हमेशा ताज़ा (new) ही रहती है. वह अखबारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती. उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है. नामवर सिंह कहते हैं- |
व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं…..इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है. |
दरअसल, नागार्जुन की कविताओं को अख़बारी कविता कहने वाले शायद यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी तात्कालिकता में ही उनके कालजयी होने का राज छिपा हुआ है और वह राज यह है कि तात्कालिकता को ही उन कविताओं में रचनात्मकता का सबसे बड़ा हथियार बनाया गया है. उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘, ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात‘ आदि इसका बेहतरीन प्रमाण हैं. असल में, बात यह है कि नागार्जुन की कविता, जैसा कि कई अन्य महान रचनाकारों की रचनाओं के संबंध में भी कहा गया है, आम पाठकों के लिए सहज है, मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली हैं. ये कविताएँ जिनको संबोधित हैं उनको तो झट से समझ में आ जाती हैं, पर कविता के स्वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वह कविता ही नहीं लगती. ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्कालिक राजनीति संबंधी, प्रकृति संबंधी और सौंदर्य-बोध संबंधी आदि जैसे कई खाँचों में बाँट देते हैं और उनमें से कुछ को स्वीकार करके बाकी को खारिज कर देना चाहते हैं. वे उनकी सभी प्रकार की कविताओं की एक सर्वसामान्य भावभूमि की तलाश ही नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आँखों पर स्वनिर्मित प्रतिमानों से बने पूर्वग्रह की पट्टी बँधी होती है. |
बाबा के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है. वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं. उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है. इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है. उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ. बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं. यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी! उनकी बीहड़ कवि-दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए! उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ की ये पंक्तियाँ देखिए- |
धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सुअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनोंवाली! |
यों, बीहड़ता कई दूसरे कवियों में भी है, पर इतनी स्वाभाविक कहीं नहीं है. यह नागार्जुन के कवि-मानस में ही संभव है जहाँ सरलता और बीहड़ता, दोनों एक-दूसरे के इतने साथ-साथ उपस्थित हैं. इसी के साथ उनकी एक और विशेषता भी उल्लेखनीय है, जिसे डॉ. रामविलास शर्मा ने सही शब्दों में रेखांकित करते हुए कहा है- |
नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि-हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी-हल कर पाए हैं. |
बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का तो कहना ही क्या! बाबा उन विरले कवियों में से हैं जो एक साथ कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी तालियाँ बटोरते रहे और गंभीर आलोचकों से भी समादृत होते रहे. बाबा के इस जादुई कमाल के बारे में खुद उन्हीं की जुबानी यह दिलचस्प उद्धरण सुनिए- |
कवि-सम्मेलनों में बहुत जमते हैं हम. समझ गए ना? बहुत विकट काम है कवि-सम्मेलन में कविता सुनाना. बड़े-बड़ों को, तुम्हारा, क्या कहते हैं, हूट कर दिया जाता है. हम कभी हूट नहीं हुए. हर तरह का माल रहता है, हमारे पास. यह नहीं जमेगा, वह जमेगा. काका-मामा सबकी छुट्टी कर देते हैं हम….. समझ गए ना? |
उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के मणिकांचन संयोग का एक उल्लेखनीय उदाहरण है. |
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त.
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद. |
इस तरह की बाबा की दर्जनों खूबसूरत कविताएँ हैं जो इस दृष्टि से उनके समकालीन तमाम कवियों की कविताओं से विशिष्ट कही जा सकती हैं. कलात्मक सौंदर्य की कविताएँ शमशेर ने भी खूब लिखी हैं, पर वे लोकप्रिय नहीं हैं. लोकप्रिय कविताएँ धूमिल की भी हैं पर उनमें कलात्मक सौंदर्य का वह स्तर नहीं है जो नागार्जुन की कविताओं में है. बाबा की कविताओं में आखिर यह विलक्षण विशेषता आती कहाँ से है? दरअसल, बाबा की प्राय: सभी कविताएँ संवाद की कविताएँ हैं और यह संवाद भी एकहरा और सपाट नहीं है. वह हजार-हजार तरह से संवाद करते हैं अपनी कविताओं में. आज कविता के संदर्भ में संप्रेषण की जिस समस्या पर इतनी चिंता जताई जा रही है, वैसी कोई समस्या बाबा की कविताओं को व्यापती ही नहीं. सुप्रसिद्ध समकालीन कवि केदारनाथ सिंह स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं:
स्वाधीनता के बाद के कवियों में यह विशेषता केवल नागार्जुन के यहाँ दिखाई पड़ती है….यह बात दूसरे प्रगतिशील कवियों के संदर्भ में नहीं कही जा सकती. |
बाबा की कविताओं की इसी विशेषता के एक अन्य कारण की चर्चा करते हुए केदारनाथ सिंह कहते हैं कि बाबा अपनी कविताओं में ‘बहुत से लोकप्रिय काव्य-रूपों को अपनाते हैं और उन्हें सीधे जनता के बीच से ले आते हैं.’ उनकी ‘मंत्र कविता’ देहातों में झाड़-फूँक करके उपचार करने वाले ओझा की शैली में है. |
ओं भैरो, भैरो, भैरो, ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंडओम् ओम् ओम्
ओम् धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्
ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सत् हरि: ओं तत्सत् |
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भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है। उनकी मशहूर कविता “आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी” की ये पंक्तियाँ देखिए: |
यह तो नई–नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी–सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!
रफ़ू करेंगे फटे–पुराने जाल की!
यही हुई है राय जवाहरलाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी! |
नागार्जुन की भाषा और उनके छंद मौके के अनुरूप बड़े कलात्मक ढंग से बदल जाया करते हैं। यदि हम अज्ञेय, शमशेर या मुक्तिबोध की कविताओं को देखें तो उनमें भाषा इस कदर बदलती नहीं है। ये कवि अपने प्रयोग प्रतीकों और बिम्बों के स्तर पर करते हैं, भाषा की जमीन के स्तर पर नहीं। उनके समकालीन कवि त्रिलोचन शास्त्री ने मुक्तिबोध और नागार्जुन की कविताओं की तुलना करते हुए एक बार कहा था- |
मुक्तिबोध की कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी या यूरोप की दूसरी भाषाओं में करना ज्यादा आसान है, क्योंकि उसकी भाषा भले भारतीय है, पर उसमें मानसिकता का प्रभाव पश्चिम से आता है; लेकिन नागार्जुन की कविताओं का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद बहुत कठिन होगा। यदि ऐसी कोशिश भी हो तो तीन–चार पंक्तियों के अनुवाद के बाद ‘फुटनोट‘ से पूरा पन्ना भरना पड़ेगा। |
यही असल में बाबा की कविताओं के ठेठ भारतीय और मौलिक धरातल की पहचान है, जो उन्हें अपने समकालीन दौर के कई प्रमुख कवियों-जैसे अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध से अलग भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित करता है। इसी से जुड़ी एक बात और। ये कवि मुख्य रूप से साहित्य के आंदोलनों से, वह भी पश्चिम-प्रेरित आंदोलनों से प्रभावित होकर कविता करते रहे, जबकि नागार्जुन भारतीय जनता के आंदोलनों से प्रेरित और प्रभावित होकर, या यों कहें कि उनमें शामिल होकर कविता करते रहे हैं। बाबा भले ही वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे, परंतु उनकी यह विचारधारा भी नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई थी। यही कारण है कि वर्ष 1962 और 1975 में जब अधिकांश भारतीय ‘कम्यूनिस्ट’ रहस्यमय चुप्पी साधकर बैठे रहे थे, तब बाबा ने उग्र जनप्रतिक्रिया को अपनी कविताओं के माध्यम से स्वर दिया था। इन्हीं मौकों पर बाबा ने ‘‘पुत्र हूँ भारत माता का”, ‘‘और कुछ नहीं, हिन्दुस्तानी हूँ महज”, ‘’क्रांति तुम्हारी तुम्हें मुबारक”, ‘’कम्युनिज्म के पंडे”, “कट्टर कामरेड उवाच” तथा “इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको” जैसी कविताएँ लिखी थीं। |
बाबा की कविताओं की भाव-भूमि प्रयोगवादी और नई कविता की भाव-भूमि से काफी भिन्न है, क्योंकि इन प्रवृत्तियों की ज्यादातर कविताएँ समाज-निरपेक्ष और आत्मपरक हैं, जबकि बाबा की कविताएँ समाज-सापेक्ष और जनोन्मुख हैं। उनके समकालीन कवियों की रचनाओं के संदर्भ में देखने पर यह बात ज्यादा साफ तौर पर समझ में आती है कि बाबा की कविता का बदलते भाव-बोध के बदलते धरातल के साथ किस तरह का रिश्ता रहा है, अर्थात् यह उन सबसे किस हद तक जुड़ती है और किस हद तक अलग होती है। |
अज्ञेय और शमशेर जैसे कवियों की रचनाएँ कलावादी (art for art’s sake) भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित हैं, जबकि नागार्जुन की कविताएँ जीवनवादी (art for life’s sake) भाव-भूमि पर। यह अंतर इन दोनों तरह की कविताओं के कथ्य, शिल्प और भाषा-तीनों स्तर पर देखा जा सकता है। निराला की उत्तरवर्ती दौर वाली कुछ कविताएँ, जैसे ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘तोड़ती पत्थर’ भी जनवादी भाव-भूमि के करीब हैं। दोनों का मूल स्वर प्रगतिशील चेतना से सरोकार रखता है। निराला जहाँ खत्म करते हैं, बाबा वहाँ से शुरू करते हैं। |
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा की कविताओं की भाव-भूमि बुनियादी रूप से बाबा की कविताओं से भिन्न है और यह भिन्नता मूलत: प्रतिबद्धता एवं सरोकार से संबंधित है। फिर भी, इन तीनों कवियों की काव्य-चेतना के बीच एक अंतर्संबंध भी है, जिसे रेखांकित करते हुए इब्बार रब्बी कहते हैं- |
वह समाज जो आदमी का शोषण कर रहा है, उसकी मानसिकता को उजागर करते हैं अप्रत्यक्ष रूप से श्रीकांत वर्मा; उसके स्रोतों की पोल खोलते हैं रघुवीर सहाय; और उससे लड़ना सिखाते हैं नागार्जुन। |
इस अंतर और अंतर्संबंध को इससे भी बेहतर ढंग से समझने के लिए इन तीनों कवियों का वर्ष 1975 के ‘आपातकाल’ के प्रति नजरिया देखना महत्वपूर्ण होगा। श्रीकांत वर्मा आपातकाल के पक्ष में खड़े थे; रघुवीर सहाय ‘हँसो, हँसो जल्दी हँसो’ जैसी कविताओं के माध्यम से सांकेतिक प्रतिवाद कर रहे थे; जबकि बाबा नागार्जुन न सिर्फ तीखे तेवर वाली कविताएँ लिखकर, बल्कि स्वयं आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेकर और जेल की सज़ा भुगतकर आपातकाल का विरोध कर रहे थे। इसी तरह यदि हम मुक्तिबोध की कविता से बाबा की कविताओं की तुलना करें तो पाते हैं कि मुक्तिबोध की कविता गहन विचारशीलता और स्वातंत्र्योत्तर भारत के मध्यवर्गीय चरित्र में निहित सुविधाजीविता और आदर्शवादिता के बीच के अंतर्द्वन्द्व की कविता है, जिसमें आम आदमी का संघर्ष आत्मसंघर्ष के रूप में है। मुक्तिबोध अपने समय के संघर्षों से सैद्धांतिक स्तर पर जुड़ते हैं, दार्शनिक अंदाज में। जबकि नागार्जुन की कविता ‘अनुभवजन्य भावावेग से प्रेरित’ है और आत्म-संघर्ष की बजाय खुले संघर्ष के स्वर में है। वह अपने समय के संघर्षों से व्यावहारिक धरातल पर जुड़ते हैं, एक सक्रिय योद्धा की तरह। |
बाबा की कविताएँ सौंदर्य के भाव-बोध और भाषा-शैली आदि के स्तर पर सबसे अधिक केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन शास्त्री की कविताओं की भाव-भूमि के करीब हैं। इन तीनों कवियों के बुनियादी संस्कार और सरोकार काफी हद तक एक जैसे हैं और इसी वजह से तीनों एक धारा के कवि माने जाते हैं। फिर भी, बाबा की कविताएँ बाबा की कविताएँ हैं और वे केदार एवं त्रिलोचन की कविताओं की तुलना में अपनी अलग छाप छोड़ती हैं। |
मुझे उनकी एक कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ स्कूल के दिनों से याद है। कुछ पंक्तियाँ सुनिए: |
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे–छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहीन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ–आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त–मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है। |
उनका मैथिली गीत, “श्यामघटा, सित बीजुरि-रेह” भी मुझे अति प्रिय है: |
श्याम घटा, सित बीजुरि–रेह
अमृत टघार राहु अवलेह
फाँक इजोतक तिमिरक थार
निबिड़ विपिन अति पातर धार
दारिद उर लछमी जनु हार
लोहक चादरि चानिक तार
देखल रहि रहि तड़ित–विलास
जुगुलकिशोरक उन्मद रास
सन्दर्भ – सृजन शिल्पी |
1 | amit kumar jain
मई 30, 2008 at 6:30 पूर्वाह्न
all what i can say-‘EXCELLENT’…you people are doing a great job not only for the aspirants but also for our great hindi sahitya…
dhanyavaad.
amit kumar jain.