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भाषा गणना के जार्ज ग्रियर्सन
Posted जनवरी 17, 2008
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भाषा गणना के जार्ज ग्रियर्सन |
भारत में पिछली जनगणना २००१ ई. में हुई थी। यह प्रत्येक दशक के प्रारम्भ में होती रही है। विश्व में मानवों की संख्या का सही आकलन करने की इस विश्वजनीन योजना के हम सभी चिर-ऋणी हैं। समस्त संसार की ऐसी जनांकिकी से ही हमें वह अमूल्य सांख्यिकी प्राप्त होती है जो हर तरह की जानकारी का और योजनाओंे का आधार बनती है। जनगणना की इस प्रक्रिया के बहाने अनेक ऐसी ही बहुमूल्य अन्य ज्ञान-सामग्रियाँ भी भारत को मिली हैं जो इतिहास में अमर हो गई हैं। यह शायद कम ही लोगों को मालूम होगा कि जनगणना की ऐसी दशवर्षीय प्रक्रिया भारत में शुरू नहीं होती तो भारत का वह विराट् भाषायी सर्वेक्षण जिसके आधार पर व्यापक भाषिक अनुसंधान और लेखन इस देश में होते रहे हैं, नहीं हो पाता। जार्ज ग्रियर्सन की ??लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया?? जिसकी विशाल जिल्दें भारत के कोने-कोने की एक-एक भाषा और बोली के श्रमपूर्वक संकलित नमूनों के साथ अमूल्य भाषा परिवारों की जानकारी देने वाला अक्षय स्रोत है, इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है। इसका छोटा-सा लेखा-जोखा इस अभूतपूर्व और नायाब चमत्कार की एक झलक आपको दे सकेगा। |
भारत में कितनी भाषाएँ (और कितनी बोलियाँ) हैं इसका प्रामाणिक सर्वेक्षण सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने १९२७ ई. में उपर्युक्त विराट् संकलन ग्रन्थ के रूप में, अपनी वृहत् भूमिका और विवेचनों के साथ छपाया था। भारत की इस भाषा गणना की प्रेरणा ग्रियर्सन को जनगणना प्रक्रिया के दौरान, बल्कि जनगणना में लगने के कारण ही मिली। १८९१ की जो जनगणना हुई उसमें भाषा के आँकडे किस प्रकार शामिल किये जाएँ इस पर विचार भी चला। प्रत्येक दशवर्षीय जनगणना से जटिल भाषायी आँकडे निकल कर, उलझ कर रह जाते थे। जार्ज ग्रियर्सन (१८५१-१९४१) इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे। वर्षों तक वे बिहार में मिथिला के परगना अधिकारी (एस.डी.ओ.) रहे। जनगणनाओं के दौरान आई.सी.एस. अधिकारियों को ही पर्यवेक्षकीय दायित्व दिया जाता था, गिनती का काम तो पटवारी आदि का पूरा तंत्र करता था। ग्रियर्सन ने प्रस्ताव किया कि जनगणना की तरह ही, बल्कि जनगणना के साथ ही भाषा गणना क्यों न करवा ली जाए। यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और एक विशाल तंत्र चप्पे-चप्पे पर जाकर एक-एक बोली के नमूने, उनके अभिधान और समस्त संबद्ध जानकारी इकट्ठी करने लगा। १९२१ की जनगणना के साथ ये आँकडे मुकम्मिल हुए। ग्रियर्सन ने इनका संकलन और संपादन किया। इससे पूर्व इतने बडे पैमाने पर कोई भाषा सर्वेक्षण नहीं हुआ था इसलिए भाषाओं या बोलियों के नामकरण, वर्गीकरण आदि में उन्हें बहुत कठिनाई हुई। अनेक अभिधान और वर्ग उन्हें अपने विवेक से बनाने पडे। इन सबका विवरण ईमानदारी से उन्होंने अपने विस्तृत विवेचन में दे भी दिया है। भाषाशास्त्री जानते हैं कि भाषिकीय, शास्त्रीय परिभाषा में भाषा और बोली में कोई विभाजक रेखा नहीं है। अलग-अलग भाषाशास्त्री इनकी अलग-अलग परिभाषा देते हैं। इस पर विवेचन की यहाँ प्रासंगिकता नहीं है, इसे फिर कभी उठाया जाएगा। यहाँ इतना ही प्रासंगिक है कि ऐसे वर्गीकरण की कठिनाई और अपने ओर से किये गये वर्गीकरण का संकोच और विनय के साथ आधार बतलाते हुए ग्रियर्सन ने अपने सर्वेक्षण के फलस्वरूप भारत में १७९ भाषाएँ और ५४४ बोलियाँ विवेचित कीं जिनके नमूने उन्हें मिल पाए थे। ये सब नमूने भी देवनागरी में इन जिल्दों में प्रकाशित हैं जो उनके अर्थात् उनके नीचे कार्यरत पटवारियों आदि की विशाल टीम के अथक श्रम के प्रमाण हैं। स्पष्ट है कि यह भाषागणना पाश्चात्य प्रशासकों द्वारा चलाई गई जनगणना प्रक्रिया की ही अमूल्य देन है। यह हम इसलिए भी लिख रहे हैं कि पहली बार प्रारम्भिक प्रयास के रूप में किये गये इस ग्रियर्सनीय सर्वेक्षण को आज तक वेदवाक्य मानकर आँख मूँद कर अन्तिम वाक्य भी माना जा रहा है और किसी भी भारतीय माई के लाल ने इस सर्वेक्षण के आगे कोई भी प्रयास या निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया नहीं अपनाई। यह तो निर्विवाद है ही कि इस प्रकार के ऐतिहासिक आंकलनों की जो परम्पराएँ ब्रिटिश सरकार के प्रशासकों ने स्थापित कीं और जो निष्पक्ष दृष्टि से भारत हितकारी भी रहीं (जैसे हर जिले का गजेटियर लिखकर सारी जानकारी चिरस्थायी बनाने का प्रयास, पुरातत्त्व-सर्वेक्षण की खुदाइयाँ आदि) उनका एहसान मानने में हमें कोताही नहीं करनी चाहिए। वह हमने की भी नहीं है। यह अवश्य है कि ऐसे प्रयत्नों को वहीं समाप्त न मानकर वह प्रक्रिया हमें चलाते रहना चाहिए क्योंकि ज्ञान और उसका आकलन सदा चलने वाली और पुनर्नवीनीकृत होते रहने वाली प्रक्रिया होती है। ग्रियर्सन ने तत्कालीन जानकारी को आधार मानकर एक प्रस्ताव या प्रयोग के रूप में अनेक ऐसे नामकरण या वर्गीकरण किये जिन पर उतना विचार नहीं हो पाया जितना आवश्यक है। उदाहरणार्थ उसने भोजपुरी और मैथिली जैसी भाषाओं के नमूने लिए और नामकरण भी। भाषा और बोली बताने का उसका आधार था – बडे क्षेत्र, राज्य या प्रान्त में बोली जाने वाली तो हुई भाषा और उसके नीचे के छोटे-छोटे भू-भागों वाली हुई बोली। इस आधार पर भोजपुरी और मैथिली को उसने बोलियों में वर्गीकृत किया और पूरे बिहार में बोली जाने वाली किसी भाषा का ज्ञान या नाम उस समय था नहीं अतः अपनी ओर से एक भाषा वर्ग बनाया ??बिहारी??। यह अभूतपूर्व नाम न पहले था, न आज ह। फिर कहा कि मैथिली और भोजपुरी आदि ??बिहारी?? भाषा की बोलियाँ हैं। अपने नवें अध्याय में उसने यह अभिगम और ये सब नूतन प्रयोग ससंकोच वर्णित भी कर दिये हैं। उसने राजस्थान की मारवाडी, राजावाटी, हाडौती, ढूंढारी आदि बोलियों के नमूने लिए, जो जो नामकरण कहीं से सुने वे भी उल्लिखित किये और अपने विवेक और अनुमान से उनका वर्गीकरण कर दिया। तभी तो वागडी को बीकानेरी की बहन बतला दिया। भीली को एक अलग भाषा बता दी। मालवी और नीमाडी को राजस्थानी की उपबोलियाँ बता दिया, जो भीली की होनी चाहिए थीं उसके वर्गानुसार। राजस्थानी नाम भी ग्रियर्सन की बहुमूल्य देन है। उसने स्वयं स्पष्ट किया है कि इस भूभाग (राजपूताने) की बोलियों का एक वर्ग बनाकर मैं किस भाषा का नाम दूँ यह समस्या मेरे सामने थी। मेरे ही एक भाई अंग्रेज जेम्स टॉड ने अपना इतिहास ग्रन्थ (एनाल्स) १८२९ ई. में निकाला उसमें इस भू-भाग को (पहली बार) राजस्थान कहा गया था, अतः मैंने ??राजस्थानी?? नामकरण कर दिया। यह नाम मैंने गढा है यह विवरण ग्रियर्सन ने नवें अध्याय में स्पष्ट दे भी दिया है। जैसे बिहार की सारी बोलियों के समूह को बिहारी भाषा वर्ग में रहने हेतु उसने बिहारी नाम गढा था उसी प्रकार राजपूताने की बोलियों को एक भाषा वर्ग में समाहित करने हेतु राजस्थानी नाम गढ लिया। इस बात को ईमानदारी से बता देना अवश्य ही शोध दृष्टि और बौद्धिक वस्तुनिष्ठता के हित में है। जैसा पहले संकेत किया जा चुका है, पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय भाषाओं के अध्ययन में जो श्रम किया है हमें उसकी कद्र करनी चाहिए और प्रसन्नता की बात है कि इसमें हम कोताही भी नहीं कर रहे। फ्राँसीसी विद्वान तोस्सितोरी ने बीकानेर और निकटवर्ती क्षेत्रों में रहकर वहाँ की बोलियों पर जो शोध किया उसकी निष्पक्ष दृष्टि से प्रशंसा राजस्थानियों ने की है। बीकानेर में कुछ वर्ष पूर्व ही स्थापित टेसीटोरी की छत्री इसका प्रमाण है। टेसीटोरी रामायण का गहन अध्येता था। उसने रामकथा पर जो कुछ लिखा उसका भी अच्छा मूल्यांकन किया है हमने। मैका लिस्टर एक पादरी था जिसने ढूँढारी (जयपुर की बोली) का गहरा अध्ययन किया, उसका व्याकरण लिखा। उसका यह कार्य सर्वथा प्रशंसनीय था यद्यपि ग्रियर्सन के महासागर की लहरों के कलकल ने इन छोटी-मोटी शोध-सरिताओं की आवाज को सदा के लिए दबा दिया। इसीलिए इन दोनों के सर्वेक्षण के निष्कर्ष और ग्रन्थ प्रसारित ही नहीं हो पाए। किन्तु उनके श्रम की गरिमा और उनके कार्य का महत्त्व निर्विवाद है ही। ग्रियर्सन ने अपने वर्गीकरणों और नामकरणों के जो आधार दिये हैं वे स्पष्ट करते हैं कि उनका अभिगम जनगणना के एक अधिकारी की दृष्टि से उपजा है। हिन्दी की बोलियों का उसने बडी संख्या में आकलन किया है और ??इनर बैंड??, ??आउटर बैंड?? आदि वर्गों में उन्हें बाँट कर स्पष्ट किया है कि वह वर्गीकरण भूभाग-वार है, भाषिकीय नहीं। ग्रियर्सन आई.सी.एस. था, प्रशासक था, ईमानदार अध्येता था किन्तु भारतीय विद्वानों का यह औदार्य वस्तुतः प्रशंसनीय है कि उसे एक भाषाशास्त्री का दर्जा देकर उसे भारतीय मनीषा ने सम्मानित किया है। राजस्थानी और बिहारी नामक दो भाषा-नामकरणों के जनक होने के नाते इन भाषाओं के विद्वानों ने उसे क्या सम्मान दिया इसका विवरण भी दिलचस्प हो सकता है। हो सकता है मैथिली और भोजपुरी को जो अपने आपको भाषा मानते हुए हिन्दी के मुकाबले खडी होने का सबल अभियान चला रही है, उसका यह अभिमत पसन्द न आया हो कि वे बोलियाँ हैं वैसे बोलियाँ क्या होती हैं, भाषाएँ क्या, इस पर उसने अपने विवेचन में विस्तृत विमर्श किया है। मैथिली और राजस्थानी को साहित्य अकादमी ने साहित्यिक भाषा मान ही लिया है। मैथिली आठवीं अनुसूची में आ गई है और राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में लाने और राजभाषा बनाने के प्रयास हो रहे हैं जिनका विरोध भी हो रहा है। ग्रियर्सन की परोक्ष भूमिका इन भाषाओं के नामकरण में क्या रही, जनगणना-यज्ञ में लगी इस एक आहुति ??भाषागणना?? या सर्वेक्षण का इतिहास क्या है, इसका आकलन, इसी दृष्टि से, काफी दिलचस्प और ज्ञानवर्धक सिद्ध हो सकता है। |
हिन्दी भाषा और साहित्य
Posted जनवरी 17, 2008
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भाषा वैज्ञानिक हमें शब्द देते हैं, लेकिन साहित्यकार उन शब्दों को चुनकर एक रचना को जन्म देते हैं। भाषा वैज्ञानिक वाक्य संरचना का ज्ञान कराते हैं, लेकिन साहित्यकार वाक्य का अर्थ सुरक्षित रखते हुए रचना में लालित्य पैदा करते हैं। भाषा वैज्ञानिक लेखन में भाषा अनुशासन का पाठ पढाते हैं लेकिन साहित्यकार किसी भी भाषायी अनुशासन से परे शब्दों के जोड-तोड के जादू से पाठक के दिलों में समा जाते हैं। |
भाषा और साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भाषा है तो साहित्य है और जब साहित्य होता है तब भाषा स्वतः ही विकासमान होती है। वर्तमान में हिन्दी भाषा दुनिया भर में अपनी पहचान बना चुकी है। इस विकास का एकमात्र आधार है समन्वय। हिन्दी भाषा ने न केवल भारत की अपितु विश्व की अनेक भाषाओं के शब्दों से अपने आपको परिपूर्ण किया और आज भी अनेक शब्दों को अपने अंदर समाहित कर रही है। यदि हम हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो अनेक पहलू निकलकर आएँगे। |
हिन्दी भाषा का विकास क्रम – हिन्दी साहित्य की दृष्टि से सम्वत् ७६९ से १३१८ के काल को आदिकाल की संज्ञा दी गयी है। इस काल में संस्कृत, अपभ्रंश (प्राकृत एवं पालि) एवं हिन्दी भाषा, साहित्य की भाषाएँ थीं। संस्कृत उच्च एवं राजवर्ग की, अपभ्रंश धर्म प्रसार की एवं हिन्दी लोक प्रवृत्ति की भाषा बन गयी थी। इस काल में संस्कृत में व्याकरण का अनुशासन चरम पर था इस कारण संस्कृत भाषा का विस्तार ठहर गया और धर्म प्रसार के लिए सरल भाषा का प्रयोग करने की आवश्यकता अनुभव की गयी इस कारण अपभ्रंश या प्राकृत भाषा का निर्माण होने लगा। इस काल में तुर्की, फारसी और अरबी भाषा भारत में आ चुकी थी। भारत में अनेक क्षेत्रीय भाषाएँ भी विद्यमान थीं अतः संस्कृत और प्राकृत के बाद हिन्दी भाषा तीव्रता से विस्तार लेने लगी। हिन्दी भाषा चूँकि सभी भाषाओं के मेल से बनी थी इस कारण इसमें शब्दों की प्रचुरता रही और इसी कारण यह भाषा आगे चलकर साहित्य की भाषा बनी। अंग्रजों के आगमन के बाद सन् १७८० से अंग्रेजी भाषा को स्थापित करने के लिए शिक्षा प्रणाली विकसित की गयी और कॉलेज खुलने प्रारम्भ हुए। अतः कुछ नवीन शब्द अंग्रेजी के भी हिन्दी भाषा में सम्मिलित हो गए। विद्वानों का मत है कि संस्कृत भाषा में जब से व्याकरण की अनिवार्यता लागू की गयी तब से संस्कृत भाषा के विस्तार पर विराम लग गया अतः हिन्दी भाषा के विकास में अन्य भाषाओं एवं व्याकरण का कठोर अनुशासन नहीं होने से वह वर्तमान तक विस्तार लेती चली गयी। स्वतंत्रता के समय हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता मिली। यही कारण है कि आज हिन्दी सम्पूर्ण भारत में बोली और समझी जा रही है। हिन्दी आज भारत में १८ करोड लोगों की मातृभाषा है और ३० करोड लोगों ने द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान दिया है। विदेशों में भी अमेरिका, मारिशस, साउथ अ?फ्रीका, यमन, युगाण्डा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलेण्ड, जर्मनी आदि देशों में भी भारतीय मूल के निवासियों की भाषा हिन्दी ही है। भारत से गए अप्रवासी भारतीयों ने भी हिन्दी को अपनी भाषा बनाया हुआ है अतः आज हिन्दी दुनिया के प्रत्येक कोने में बोली जाती है। इतना ही नहीं १९९९ के एक सर्वेक्षण के आधार पर हिन्दी विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में पाँचवें स्थान पर है और १९९८ के एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार हिन्दी भाषा द्वितीय स्थान पर है। हिन्दी में तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का भी स्थान है तथा अंग्रेजी के शब्दों को भी सम्मिलित करने के बाद इसकी शब्द संख्या का भी निरन्तर विस्तार हो रहा है। अतः आज हिन्दी में सर्वाधिक शब्द संख्या है। |
हिन्दी भाषा के विभिन्न काल – डॉ. नगेन्द्र की पुस्तक ?हिन्दी साहित्य का इतिहास? और डॉ. लक्ष्मी लाल वैरागी की पुस्तक ?हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास? तथा इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार हिन्दी भाषा के तीन प्रमुख काल माने जाते हैं। |
आदिकाल – डॉ. नगेन्द्र के अनुसार संस्कृत भाषा का काल ईसा पूर्व १५०० से ५०० ई.पू. का है, पालि भाषा का काल ५०० से पहली ईसवी तक, अपभ्रंश काल ५०० से १००० ई. तक और हिन्दी का काल १००० ई. से आगे का काल है। अतः हिन्दी का आदिकाल १००० से १५०० ई. माना जाता है। |
मध्यकाल – १५०० से १८०० ई. तक का काल मध्यकाल माना गया है। आधुनिक काल – १८०० से वर्तमान तक का काल आधुनिक काल माना गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार ?स्वतंत्रता के समय अन्य देश भी स्वतंत्र हुए और लोकतंत्र तथा साम्यवादी सरकारें समान रूप से निराशाजनक सिद्ध हुईं। व्यक्ति या तो व्यवस्था का पुर्जा हो गया या प्रविधि का। उसका अपना व्यक्तित्व और पहचान खो गयी। इस खोऐ हुए व्यक्तित्व की खोज प्रक्रिया का नाम आधुनिकता है।? डॉ. वैरागी ने भी अपनी पुस्तक में हिन्दी के इन कालों की व्याख्या की है और दोनों ही विद्वानों ने एक अलग व्याख्या भी की है, जिसके अनुसार निम्न कालखण्डों का विवरण दिया है- रीतिकाल, वीरगाथाकाल, चारणकाल, सिद्ध सामन्त काल, छायावाद और प्रगतिवादी काल। |
हिन्दी भाषा जब अस्तित्व में आयी तब भारतीय राजनीति का संक्रमण काल था। इस कारण भारतीय साहित्य या हिन्दी साहित्य भी प्रभावित हुआ। राजनैतिक गुलामी के कारण साहित्य पर बहुत प्रभाव पडा। जहाँ साहित्य समाज की वास्तविकता से जनता को अवगत कराता था, उनका मार्गदर्शन करता था, प्रेरित करता था वहीं साहित्य चारणों की परम्परा में चला गया। मुगलकाल में रीति सिद्ध और रीति मुक्त कवियों का उदय हुआ। अंग्रेजों के काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग प्रारम्भ हुआ जिसे आधुनिक हिन्दी का काल भी कहा जाता है। भारतेन्दु का काल १८५० से १८८४ का काल माना जाता है और इसके बाद |
प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, फणीश्वर नाथ रेणु, सचिदानन्द वात्स्यायन, महादेवी आदि का काल रहा। इस काल में अंग्रेजों ने अंग्रेजी और ईसाइयत के प्रचार के लिए कॉलेज खोलने प्रारम्भ किए। समाचार पत्रों ने भी अपनी जगह बनाना प्रारम्भ किया, इस कारण साहित्य पद्य से निकलकर गद्य तक आ गया। अतः भारतेन्दु के काल को आधुनिक काल कहा गया। इसमें निबंध, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, रेखा चित्र, समालोचना आदि का विकास हुआ। छायावाद का काल १९१८ से १९३६ का काल माना गया। इस काल में आत्माभिव्यक्त स्वच्छंद काव्य की रचना हुई। श्री मुकुटधर पाण्डे ने कहा कि यह काव्य नहीं है अपितु कविता की छाया मात्र है। इसी नाम को आगे चलकर स्वीकृति मिली और छायावाद के नाम से एक कालखण्ड जाना गया। |
छायावाद के बाद प्रगतिवाद आया। डॉ. वैरागी लिखते हैं कि ?एक वाक्य में कहें तो जो चिन्तन के क्षेत्र में माक्र्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है, साम्यवाद की दिशा में माक्र्सवाद के सहारे आगे बढना प्रगतिवाद है। प्रगतिवादी साहित्य का लक्ष्य साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करना, शोषित वर्ग की दुरवस्था का वर्णन करना और शोषण तथा शोषित वर्ग के विरुद्ध शोषितों को उत्तेजित करना है।? स्वतंत्रता के बाद जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला, तब अनेक हिन्दी भाषा के साहित्यकारों का जन्म हुआ। लेकिन इस काल में प्रगतिवादी साहित्य का बोलबाला रहा। यह वाद सामूहिकतावाद और निश्चयवाद के विरुद्ध खडा था। उनकी दृष्टि में मनुष्य स्वतंत्र था। यहाँ मैं एक घटना के प्रति ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी जिसे डॉ. नगेन्द्र ने अपनी पुस्तक में भी लिखा है, कि १८९३ में जब शिकागो में विश्वधर्म संसद को विवेकानन्द ने सम्बोधित किया तब न्यूयार्क हेराल्ड ट्रिब्यून ने लिखा था कि ?विश्व धर्म संसद में विवेकानन्द सर्वश्रेष्ठ |
व्यक्ति थे। उनको सुनने के बाद ऐसा लगता था कि उस महान् देश में धार्मिक मिशनों को भेजना कितनी बडी मूर्खता है?। डॉ. नगेन्द्र आगे लिखते हैं कि ?पश्चिम की भौतिकता से चमत्कृत देशवासियों को पहली बार यह अहसास हुआ कि हमारी अपनी परम्परा में भी कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं जिन्हें संसार के समक्ष गौरवपूर्ण ढंग से रखा जा सकता है। अतः जब इस देश में प्रगतिवाद के नाम पर धर्मबंधन से मुक्त स्वतंत्रता को साहित्य में स्थान मिल रहा था, उस समय एक वर्ग भारतीय श्रेष्ठ परम्पराओं एवं संस्कृति के सिद्धान्तों को साहित्य में स्थान दे रहा था। वर्तमान में एक तरफ प्रगतिवाद के नाम पर व्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतंत्रता की बात की जा रही है तो दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति के अनुरूप परिवारवाद को व्यक्ति से बडा माना जा रहा है। प्रगतिवाद के कारण ही शोषित और शोषक की नवीन परिभाषाएँ दी गयीं और पश्चिम को शोषण रहित, स्वतंत्र समाज का दर्जा दिया गया और भारत को शोषक एवं पुरातनपंथी का दर्जा दिया गया। यहाँ एक बात और विचारणीय है कि लार्ड कॉर्नवालिस ने सन् १७९३ में बंगाल, बिहार, उडीसा में जमींदारी प्रथा लागू कर जमीन को व्यक्तिगत सम्पति के रूप में बदल दिया। इसी के साथ पंचायत व्यवस्था भी समाप्त की गयी और उसकी जगह कचहरी आ गयी। इसी तरह जंगलों पर भी जनजातीय समाज का अधिकार समाप्त कर दिया गया। अतः भारतीय समाज में शोषण की परम्परा अंग्रेजों के काल के बाद प्रारम्भ हुई। आज प्रगतिवादी भारतीय परम्पराओं को शोषण का कारण मानते हैं जबकि भारतीय परम्परा में न तो महिलाओं को पर्दे में रखा जाता था और न ही मैला ढोने की परम्परा थी। ये दोनों ही परम्परा मुगलकाल के बाद आयीं। अतः वर्तमान साहित्यकार को इतिहास का ज्ञान हुए बिना वह प्रगतिवाद की व्याख्या नहीं कर सकता। विवेकानन्द ने इसीलिए दुनिया को भारतीय संस्कृति का ज्ञान कराया था। आज इसी प्रकार महिला विमर्श और दलित विमर्श के नाम पर एक वर्ग संघर्ष खडा किया जा रहा है। मजेदार बात तो यह है कि महिला विमर्श, पुरुष लिख रहे हैं और दलित विमर्श अदलित लिख रहे हैं। साहित्य समाज के मध्य एकता स्थापित करने की बात करता है, लेकिन आज प्रगतिवाद के नाम पर संघर्ष को स्थापित करने की बात की जा रही है। इसी कारण महिलाओं और दलितों के अधिकारों को दिलाने के स्थान पर महिलाओं को केवल महिला बनाना और दलितों को भी दलित ही रखते हुए वर्ग संघर्ष को हवा दी जा रही है। अन्त में, मैं इतना ही कहना चाहूँगी कि हिन्दी भाषा और साहित्य वर्तमान युग की आवश्यकता है। आज के युवा को जब तक हिन्दी साहित्य के साथ नहीं जोडा जाएगा तब तक दुनिया में शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। प्रगतिवाद के नाम पर व्यक्ति की भौतिक और मानसिक प्रगति की बात की जानी चाहिए और इसके लिए भारतीय साहित्य का पुनर्लेखन आवश्यक है |
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