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संघ की राजभाषा नीति
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संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है ।  संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतराष्ट्रीय रूप है {संविधान का अनुच्छेद 343 (1)}  । परन्तु हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सरकारी कामकाज में किया जा सकता है  (राजभाषा अधिनियम की धारा 3)  ।
 
संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है  । परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं ।  {संविधान का अनुच्छेद 120}
 
किन प्रयोजनों के लिए केवल हिंदी का प्रयोग किया जाना है, किन के लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग आवश्यक है और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है, यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अंतर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए निदेशों द्वारा निर्धारित किया गया है  ।
 
सांविधानिक प्रावधान
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भारत के संविधान में राजभाषा से संबंधित भाग-17
 
अध्याय 1–संघ की भाषा
 
अनुच्छेद 120. संसद् में प्रयोग की जाने वाली भाषा – (1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद् में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा
 
परंतु, यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी में या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृ-भाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
 
(2) जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो “या अंग्रेजी में” शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो ।
 
अनुच्छेद 210: विधान-मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा – (1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी  में या अंग्रेजी में किया जाएगा
 
परंतु, यथास्थिति, विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
 
(2)  जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात्‌ यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो  ” या अंग्रेजी में ”  शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया हो :
 
परंतु हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में, यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले “पंद्रह वर्ष” शब्दों के स्थान पर  “पच्चीस वर्ष”  शब्द रख दिए गए हों :
 
परंतु यह और कि  अरूणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले ” पंद्रह वर्ष ” शब्दों के स्थान पर ” चालीस  वर्ष ” शब्द रख दिए गए हों ।
 
अनुच्छेद 343. संघ की राजभाषा–
 
(1) संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
 
(2) खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था :
 
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
 
(3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद् उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात्‌, विधि द्वारा
 
(क) अंग्रेजी भाषा का, या
 
(ख) अंकों के देवनागरी रूप का,
 
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएं।
 
अनुच्छेद 344. राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति–
 
(1) राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारंभ से पांच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात्‌ ऐसे प्रारंभ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।
 
(2) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को–
 
(क) संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग,
 
(ख) संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बंधनों,
 
(ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा,
 
(घ) संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंकों के रूप,
 
(ड़) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किए गए किसी अन्य विषय, के बारे में सिफारिश करे।
 
(3) खंड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में, आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के संबंध में अहिंदी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।
 
(4) एक समिति गठित की जाएगी जो तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी जिनमें से बीस लोक सभा के सदस्य होंगे और दस राज्य सभा के सदस्य होंगे जो क्रमशः लोक सभा के सदस्यों और राज्य सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।
 
(5) समिति का यह कर्तव्य होगा कि वह खंड (1)के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में प्रतिवेदन दे।
 
(6) अनुच्छेद 343 में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति खंड (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ उस संपूर्ण प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निदेश दे सकेगा।
 
अध्याय 2- प्रादेशिक भाषाएं
 
अनुच्छेद 345. राज्य की राजभाषा या राजभाषाएं–
 
अनुच्छेद 346 और अनुच्छेद 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगाः
 
परंतु जब तक राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।
 
अनुच्छेद 346. एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा–
 
संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने के लिए तत्समय प्राधिकृत भाषा, एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी :
 
परंतु यदि दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिंदी भाषा होगी तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।
 
अनुच्छेद 347. किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध–
 
यदि इस निमित्त मांग किए जाने पर राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो वह निदेश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए, जो वह विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए।
 
 
 
अध्याय 3 – उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों आदि की भाषा
 
अनुच्छेद 348. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में और अधिनियमों, विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा–
 
(1) इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, जब तक संसद् विधि द्वारा अन्यथा
उपबंध न करे तब तक–
 
(क) उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी,
 
(ख) (i) संसद् के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन में पुरःस्थापित किए जाने वाले सभी विधेयकों या प्रस्तावित किए जाने वाले उनके संशोधनों के,
 
(ii) संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित सभी अधिनियमों के और राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित सभी अध्यादेशों के ,और
(iii) इस संविधान के अधीन अथवा संसद या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन निकाले गए या बनाए गए सभी आदेशों, नियमों, विनियमों और उपविधियों के, प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे।
 
(2) खंड(1) के उपखंड (क) में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगाः
 
परंतु इस खंड की कोई बात ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश को लागू नहीं होगी।
 
(3) खंड (1) के उपखंड (ख) में किसी बात के होते हुए भी, जहां किसी राज्य के विधान-मंडल ने,उस विधान-मंडल में पुरःस्थापित विधेयकों या उसके द्वारा पारित अधिनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों में अथवा उस उपखंड के पैरा (iv‌) में निर्दिष्ट किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि में प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहां उस राज्य के राजपत्र में उस राज्य के राज्यपाल के प्राधिकार से प्रकाशित अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद इस अनुच्छेद के अधीन उसका अंग्रेजी भाषा में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।
 
अनुच्छेद 349. भाषा से संबंधित कुछ विधियां अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया–
 
इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि के दौरान, अनुच्छेद 348 के खंड (1) में उल्लिखित किसी प्रयोजन के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबंध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पुरःस्थापित या प्रस्तावित नहीं किया जाएगा और राष्ट्रपति किसी ऐसे विधेयक को पुरःस्थापित या किसी ऐसे संशोधन को प्रस्तावित किए जाने की मंजूरी अनुच्छेद 344 के खंड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों पर और उस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन गठित समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात्‌ ही देगा, अन्यथा नहीं।
 
अध्याय 4– विशेष निदेश
 
अनुच्छेद 350. व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा–
 
प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा।
 
अनुच्छेद 350 क. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं–
 
प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।
 
अनुच्छेद 350 ख. भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकारी–
 
(1) भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा।
 
(2) विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के संबंध में ऐसे अंतरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे,
राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
 
अनुच्छेद 351. हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश–
 
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।
 
राजभाषा अधिनियम, 1963
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उन भाषाओं का, जो संघ के राजकीय प्रयोजनों, संसद में कार्य के संव्यवहार, केन्द्रीय और राज्य अधिनियमों और उच्च न्यायालयों में कतिपय प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाई जा सकेंगी,उपबन्ध करने के लिए अधिनियम । भारत गणराज्य के चौदहवें वर्ष में संसद द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित होः-
 
1. संक्षिप्त नाम और प्रारम्भ-
 
(1) यह अधिनियम राजभाषा अधिनियम, 1963 कहा जा सकेगा।
 
(2) धारा 3, जनवरी, 1965 के 26 वें दिन को प्रवृत्त होगी और इस अधिनियम के शेष उपबन्ध उस तारीख को प्रवृत्त होंगे जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे और इस अधिनियम के विभिन्न उपबन्धों के लिए विभिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी।
 
2. परिभाषाएं–इस अधिनियम में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,
 
(क) ‘नियत दिन’ से, धारा 3 के सम्बन्ध में, जनवरी, 1965 का 26वां दिन अभिप्रेत है और इस अधिनियम के किसी अन्य उपबन्ध के सम्बन्ध में वह दिन अभिप्रेत है जिस दिन को वह उपबन्ध प्रवृत्त होता है;
 
(ख) ‘हिन्दी’ से वह हिन्दी अभिप्रेत है जिसकी लिपि देवनागरी है।
 
3. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए और संसद में प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा का रहना–
 
(1) संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की कालावधि की समाप्ति हो जाने पर भी, हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा, नियत दिन से ही,
 
(क) संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए जिनके लिए वह उस दिन से ठीक पहले प्रयोग में लाई जाती थी ; तथा
 
(ख) संसद में कार्य के संव्यवहार के लिए प्रयोग में लाई जाती रह सकेगी :
 
परंतु संघ और किसी ऐसे राज्य के बीच, जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, पत्रादि के प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयोग में लाई जाएगीः
 
परन्तु यह और कि जहां किसी ऐसे राज्य के, जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाया है और किसी अन्य राज्य के, जिसने हिन्दी को
अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, बीच पत्रादि के प्रयोजनों के लिए हिन्दी को प्रयोग में लाया जाता है, वहां हिन्दी में ऐसे पत्रादि के साथ-साथ उसका अनुवाद अंग्रेजी भाषा में भेजा जाएगा :
 
परन्तु यह और भी कि इस उपधारा की किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह किसी ऐसे राज्य को, जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संघ के साथ या किसी ऐसे राज्य के साथ, जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाया है, या किसी अन्य राज्य के साथ, उसकी सहमति से, पत्रादि के प्रयोजनों के लिए हिन्दी को प्रयोग में लाने से निवारित करती है, और ऐसे किसी मामले में उस राज्य के साथ पत्रादि के प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग बाध्यकर न होगा ।
 
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, जहां पत्रादि के प्रयोजनों के लिए हिन्दी या अंग्रेजी भाषा–
 
(i) केन्द्रीय सरकार के एक मंत्रालय या विभाग या कार्यालय के और दूसरे मंत्रालय या विभाग या कार्यालय के बीच ;
 
(ii) केन्द्रीय सरकार के एक मंत्रालय या विभाग या कार्यालय के और केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में के या नियंत्रण में के किसी निगम या कम्पनी या उसके किसी कार्यालय के बीच ;
 
(iii) केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में के या नियंत्रण में के किसी निगम या कम्पनी या उसके किसी कार्यालय के और किसी अन्य ऐसे निगम या कम्पनी या कार्यालय के बीच ;
 
प्रयोग में लाई जाती है वहां उस तारीख तक, जब तक पूर्वोक्त संबंधित मंत्रालय, विभाग, कार्यालय या विभाग या कम्पनी का कर्मचारीवृद हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता, ऐसे पत्रादि का अनुवाद, यथास्थिति, अंग्रेजी भाषा या हिन्दी में भी दिया जाएगा।
 
(3) उपधारा (1)में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी हिन्दी और अंग्रेजी भाषा दोनों ही–
(i) संकल्पों, साधारण आदेशों, नियमों, अधिसूचनाओं, प्रशासनिक या अन्य प्रतिवेदनों या प्रेस विज्ञप्तियों के लिए, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा या उसके किसी मंत्रालय, विभाग या कार्यालय द्वारा या केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में के या नियंत्रण में के किसी निगम या कम्पनी द्वारा या ऐसे निगम या कम्पनी के किसी कार्यालय द्वारा निकाले जाते हैं या किए जाते हैं ;
 
(ii) संसद के किसी सदन या सदनों के समक्ष रखे गए प्रशासनिक तथा अन्य प्रतिवेदनों और राजकीय कागज-पत्रों के लिए ;
 
(iii) केन्द्रीय सरकार या उसके किसी मंत्रालय, विभाग या कार्यालय द्वारा या उसकी ओर से या केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में के या नियंत्रण में के किसी निगम या
कम्पनी द्वारा या ऐसे निगम या कम्पनी के किसी कार्यालय द्वारा निष्पादित संविदाओं और करारों के लिए तथा निकाली गई अनुज्ञप्त्िायों, अनुज्ञापत्रों, सूचनाओं और निविदा-प्ररूपों के लिए, प्रयोग में लाई जाएगी।
 
(4) उपधारा (1)या उपधारा (2) या उपधारा (3) के उपबन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना यह है कि केन्द्रीय सरकार धारा 8 के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा उस भाषा या उन भाषाओं का उपबन्ध कर सकेगी जिसे या जिन्हें संघ के राजकीय प्रयोजन के लिए, जिसके अन्तर्गत किसी मंत्रालय, विभाग, अनुभाग या कार्यालय का कार्यकरण है, प्रयोग में लाया जाना है और ऐसे नियम बनाने में राजकीय कार्य के शीघ्रता और दक्षता के साथ निपटारे का तथा जन साधारण के हितों का सम्यक ध्यान रखा जाएगा और इस प्रकार बनाए गए नियम विशिष्टतया यह सुनिश्चित करेंगे कि जो व्यक्ति संघ के कार्यकलाप के सम्बन्ध में सेवा कर रहे हैं और जो या तो हिन्दी में या अंग्रेजी भाषा में प्रवीण हैं वे प्रभावी रूप से अपना काम कर सकें और यह भी कि केवल इस आधार पर कि वे दोनों ही भाषाओं में प्रवीण नहीं है उनका कोई अहित नहीं होता है।
 
(5) उपधारा (1)के खंड (क) के उपबन्ध और उपधारा (2), उपधारा (3) और उपधारा (4), के उपबन्ध तब तक प्रवृत्त बने रहेंगे जब तक उनमें वर्णित प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधान मण्डलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात्‌ ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता।
 
4 .राजभाषा के सम्बन्ध में समिति
 
(1) जिस तारीख को धारा 3 प्रवृत्त होती है उससे दस वर्ष की समाप्ति के पश्चात, राजभाषा के सम्बन्ध में एक समिति, इस विषय का संकल्प संसद के किसी भी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी से प्रस्तावित और दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने पर, गठित की जाएगी।
 
(2) इस समिति में तीस सदस्य होंगे जिनमें से बीस लोक सभा के सदस्य होंगे तथा दस राज्य सभा के सदस्य होंगे, जो क्रमशः लोक सभा के सदस्यों तथा राज्य सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।
 
(3) इस समिति का कर्तव्य होगा कि वह संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रयोग में की गई प्रगति का पुनर्विलोकन करें और उस पर सिफारिशें करते हुए राष्ट्रपति को प्रतिवेदन करें और राष्ट्रपति उस प्रतिवेदन को संसद् के हर एक सदन के समक्ष रखवाएगा और सभी राज्य सरकारों को भिजवाएगा ।
 
(4) राष्ट्रपति उपधारा (3) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर और उस पर राज्य सरकारों ने यदि कोई मत अभिव्यक्त किए हों तो उन पर विचार करने के पश्चात्‌ उस समस्त प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निदेश निकाल सकेगा :
 
परन्तु इस प्रकार निकाले गए निदेश धारा 3 के उपबन्धों से असंगत नहीं होंगे ।
 
5. केन्द्रीय अधिनियमों आदि का प्राधिकृत हिन्दी अनुवाद-
 
(1) नियत दिन को और उसके पश्चात्‌ शासकीय राजपत्र में राष्ट्रपति के प्राधिकार से प्रकाशित–
(क) किसी केन्द्रीय अधिनियम का या राष्ट्रपति द्वारा प्रख्यापित किसी अध्यादेश का, अथवा
 
(ख) संविधान के अधीन या किसी केन्द्रीय अधिनियम के अधीन निकाले गए किसी आदेश, नियम, विनियम या उपविधि का हिन्दी में अनुवाद उसका हिन्दी में प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा ।
 
(2) नियत दिन से ही उन सब विधेयकों के, जो संसद के किसी भी सदन में पुरःस्थापित किए जाने हों और उन सब संशोधनों के, जो उनके समबन्ध में संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किए जाने हों, अंग्रेजी भाषा के प्राधिकृत पाठ के साथ-साथ उनका हिन्दी में अनुवाद भी होगा जो ऐसी रीति से प्राधिकृत किया जाएगा, जो इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाए।
 
6. कतिपय दशाओं में राज्य अधिनियमों का प्राधिकृत हिन्दी अनुवाद-
 
जहां किसी राज्य के विधानमण्डल ने उस राज्य के विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियमों में अथवा उस राज्य के राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों में प्रयोग के लिए हिन्दी से भिन्न कोई भाषा विहित की है वहां, संविधान के अनुच्छेद 348 के खण्ड (3) द्वारा अपेक्षित अंग्रेजी भाषा में उसके अनुवाद के अतिरिक्त, उसका हिन्दी में अनुवाद उस राज्य के शासकीय राजपत्र में, उस राज्य के राज्यपाल के प्राधिकार से, नियत दिन को या उसके पश्चात्‌ प्रकाशित किया जा सकेगा और ऐसी दशा में ऐसे किसी अधिनियम या अध्यादेश का हिन्दी में अनुवाद हिन्दी भाषा में उसका प्राधिकृत पाठ समझा जाएगा।
 
7 .उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में हिन्दी या अन्य राजभाषा का वैकल्पिक प्रयोग-
 
नियत दिन से ही या तत्पश्चात्‌ किसी भी दिन से किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से, अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग, उस राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा पारित या दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रयोजनों के लिए प्राधिकृत कर सकेगा और जहां कोई निर्णय, डिक्री या आदेश (अंग्रेजी भाषा से भिन्न) ऐसी किसी भाषा में पारित किया या दिया जाता है वहां उसके साथ-साथ उच्च न्यायालय के प्राधिकार से निकाला गया अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद भी होगा।
 
8. नियम बनाने की शक्ति –
 
(1) केन्द्रीय सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी ।
 
(2) इस धारा के अधीन बनाया गया हर नियम, बनाए जाने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र, संसद के हर एक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, कुल तीस दिन की अवधि के लिए रखा जाएगा। वह अवधि एक सत्र में, अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी । यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रममिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो तत्पश्चात वह ऐसे परिवर्तित रुप में ही प्रभावी होगा । यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात यह निस्प्रभाव हो जाएगा । किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निस्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
 
9 . कतिपय उपबन्धों का जम्मू-कश्मीर को लागू न होना-
 
धारा 6 और धारा 7 के उपबन्ध जम्मू-कश्मीर राज्य को लागू न होंगे।
 
 
 
 
 
राजभाषा (संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग)नियम,1976
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सा.का.नि. 1052 –राजभाषा अधिनियम, 1963 (1963 का 19) की धारा 3 की उपधारा (4) के साथ पठित धारा 8 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय सरकार निम्नलिखित नियम बनाती है, अर्थातः-
 
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ–
 
(क) इन नियमों का संक्षिप्त नाम राजभाषा (संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग) नियम, 1976 है।
 
(ख) इनका विस्तार, तमिलनाडु राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है।
 
(ग) ये राजपत्र में प्रकाशन की तारीख को प्रवृत्त होंगे।
 
2. परिभाषाएं– इन नियमों में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न होः-
 
(क) ‘अधिनियम’ से राजभाषा अधिनियम, 1963 (1963 का 19) अभिप्रेत है;
(ख) ‘केन्द्रीय सरकार के कार्यालय’ के अन्तर्गत निम्नलिखित भी है, अर्थातः-
 
(क) केन्द्रीय सरकार का कोई मंत्रालय, विभाग या कार्यालय;
 
(ख) केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किसी आयोग, समिति या अधिकरण का कोई कार्यालय; और
 
(ग) केन्द्रीय सरकार के स्वामित्व में या नियंत्रण के अधीन किसी निगम या कम्पनी का कोई कार्यालय;
 
(ग) ‘कर्मचारी’ से केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में नियोजित कोई व्यक्ति अभिप्रेत है;
 
(घ) ‘अधिसूचित कार्यालय’ से नियम 10 के
उपनियम (4) के अधीन अधिसूचित कार्यालय, अभिप्रेत है;
 
(ड़) ‘हिन्दी में प्रवीणता’ से नियम 9 में वर्णित प्रवीणता अभिप्रेत है ;
 
(च) ‘क्षेत्र क’ से बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्य तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत है;
 
(छ) ‘क्षेत्र ख’ से गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब राज्य और चंडीगढ़ संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत है;
 
(ज) ‘क्षेत्र ग’ से खंड (च) और (छ) में निर्दिष्ट राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से भिन्न राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत है;
 
(झ) ‘हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान’ से नियम 10 में वर्णित कार्यसाधक ज्ञान अभिप्रेत है ।
 
3. राज्यों आदि और केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों से भिन्न कार्यालयों के साथ पत्रादि-
 
(1) केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से क्षेत्र ‘क’ में किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र को या ऐसे राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में किसी कार्यालय (जो केन्द्रीय सरकार का कार्यालय न हो) या व्यक्ति को पत्रादि असाधारण दशाओं को छोड़कर हिन्दी में होंगे और यदि उनमें से किसी को कोई पत्रादि अंग्रेजी में भेजे जाते हैं तो उनके साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी भेजा जाएगा।
 
(2) केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से–
 
(क) क्षेत्र ‘ख’ में किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र को या ऐसे राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में किसी कार्यालय (जो केन्द्रीय सरकार का कार्यालय न हो) को पत्रादि सामान्यतया हिन्दी में होंगे और यदि इनमें से किसी को कोई पत्रादि अंग्रेजी में भेजे जाते हैं तो उनके साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी भेजा जाएगाः परन्तु यदि कोई ऐसा राज्य या संघ राज्य क्षेत्र यह चाहता है कि किसी विशिष्ट वर्ग या प्रवर्ग के पत्रादि या उसके किसी कार्यालय के लिए आशयित पत्रादि संबद्ध राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार द्वारा विनिर्दिष्ट अवधि तक अंग्रेजी या हिन्दी में भेजे जाएं और उसके साथ दूसरी भाषा में उसका अनुवाद भी भेजा जाए तो ऐसे पत्रादि उसी रीति से भेजे जाएंगे ;
 
(ख) क्षेत्र ‘ख’ के किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में भेजे जा सकते हैं।
 
(3) केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से क्षेत्र ‘ग’ में किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र को या ऐसे राज्य में किसी कार्यालय (जो केन्द्रीय सरकार का कार्यालय न हो)या व्यक्ति को पत्रादि अंग्रेजी में होंगे।
 
(4) उप नियम (1) और (2) में किसी बात के होते हुए भी, क्षेत्र ‘ग’ में केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से क्षेत्र ‘क’या’ख’में किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र को या ऐसे राज्य में किसी कार्यालय (जो केन्द्रीय सरकार का कार्यालय न हो) या व्यक्ति को पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकते हैं । परन्तु हिन्दी में पत्रादि ऐसे अनुपात में होंगे जो केन्द्रीय सरकार ऐसे कार्यालयों में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की संख्या, हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधाओं और उससे आनुषंगिक बातों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अवधारित करे।
 
4. केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के बीच पत्रादि-
 
(क) केन्द्रीय सरकार के किसी एक मंत्रालय या विभाग और किसी दूसरे मंत्रालय या विभाग के बीच पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकते हैं;
 
(ख) केन्द्रीय सरकार के एक मंत्रालय या विभाग और क्षेत्र ‘क’ में स्थित संलग्न या अधीनस्थ कार्यालयों के बीच पत्रादि हिन्दी में होंगे और ऐसे अनुपात में होंगे जो केन्द्रीय सरकार, ऐसे कार्यालयों में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की संख्या, हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधाओं और उससे संबंधित आनुषंगिक बातों को ध्यान में रखते हुए, समय-समय पर अवधारित करे;
 
(ग) क्षेत्र ‘क’ में स्थित केन्द्रीय सरकार के ऐसे कार्यालयों के बीच, जो खण्ड (क) या खण्ड (ख) में विनिर्दिष्ट कार्यालयों से भिन्न हैं, पत्रादि हिन्दी में होंगे;
 
(घ) क्षेत्र ‘क’ में स्थित केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों और क्षेत्र ‘ख’ या ‘ग’में स्थित केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के बीच पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकते हैं;
 
परन्तु ये पत्रादि हिन्दी में ऐसे अनुपात में होंगे जो केन्द्रीय सरकार ऐसे कार्यालयों में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की संख्या, हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधाओं और उससे आनुषंगिक बातों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अवधारित करे ;
 
(ङ) क्षेत्र ‘ख’ या ‘ग’ में स्थित केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों के बीच पत्रादि हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकते हैं;
 
परन्तु ये पत्रादि हिन्दी में ऐसे अनुपात में होंगे जो केन्द्रीय सरकार ऐसे कार्यालयों में हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की संख्या, हिन्दी में पत्रादि भेजने की सुविधाओं और उससे आनुषंगिक बातों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अवधारित करे ;
 
परन्तु जहां ऐसे पत्रादि–
 
(i) क्षेत्र ‘क’ या क्षेत्र ‘ख’ किसी कार्यालय को संबोधित हैं वहां यदि आवश्यक हो तो, उनका दूसरी भाषा में अनुवाद, पत्रादि प्राप्त करने के स्थान पर किया जाएगा;
 
(ii) क्षेत्र ‘ग’ में किसी कार्यालय को संबोधित है वहां, उनका दूसरी भाषा में अनुवाद, उनके साथ भेजा जाएगा;
 
परन्तु यह और कि यदि कोई पत्रादि किसी अधिसूचित कार्यालय को संबोधित है तो दूसरी भाषा में ऐसा अनुवाद उपलब्ध कराने की अपेक्षा नहीं की जाएगी ।
 
5. हिन्दी में प्राप्त पत्रादि के उत्तर–
 
नियम 3 और नियम 4 में किसी बात के होते हुए भी, हिन्दी में पत्रादि के उत्तर केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से हिन्दी में दिए जाएंगे ।
 
6. हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग
 
अधिनियम की धारा 3 की उपधारा (3) में निर्दिष्ट सभी दस्तावेजों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग किया जाएगा और ऐसे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों का यह उत्तरदायित्व होगा कि वे यह सुनिश्चित कर लें कि ऐसी दस्तावेजें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही में तैयार की जाती हैं, निष्पादित की जाती हैं और जारी की जाती हैं।
 
7. आवेदन, अभ्यावेदन आदि-
 
(1) कोई कर्मचारी आवेदन, अपील या अभ्यावेदन हिन्दी या अंग्रेजी में कर सकता है।
 
(2) जब उपनियम (1) में विनिर्दिष्ट कोई आवेदन, अपील या अभ्यावेदन हिन्दी में किया गया हो या उस पर हिन्दी में हस्ताक्षर किए गए हों, तब उसका उत्तर हिन्दी में दिया जाएगा।
 
(3) यदि कोई कर्मचारी यह चाहता है कि सेवा संबंधी विषयों (जिनके अन्तर्गत अनुशासनिक कार्यवाहियां भी हैं) से संबंधित कोई आदेश या सूचना, जिसका कर्मचारी पर तामील किया
जाना अपेक्षित है, यथास्थिति, हिन्दी या अंग्रेजी में होनी चाहिए तो वह उसे असम्यक विलम्ब के बिना उसी भाषा में दी जाएगी।
 
8. केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में टिप्पणों का लिखा जाना –
 
(1) कोई कर्मचारी किसी फाइल पर टिप्पण या कार्यवृत्त हिंदी या अंग्रेजी में लिख सकता है और उससे यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह उसका अनुवाद दूसरी भाषा में प्रस्तुत करे।
 
(2) केन्द्रीय सरकार का कोई भी कर्मचारी, जो हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखता है, हिन्दी में किसी दस्तावेज के अंग्रेजी अनुवाद की मांग तभी कर सकता है, जब वह दस्तावेज विधिक या तकनीकी प्रकृति का है, अन्यथा नहीं।
 
(3) यदि यह प्रश्न उठता है कि कोई विशिष्ट दस्तावेज विधिक या तकनीकी प्रकृति का है या नहीं तो विभाग या कार्यालय का प्रधान उसका विनिश्चय करेगा।
 
(4) उपनियम (1) में किसी बात के होते हुए भी, केन्द्रीय सरकार, आदेश द्वारा ऐसे अधिसूचित कार्यालयों को विनिर्दिष्ट कर सकती है जहां ऐसे कर्मचारियों द्वारा,जिन्हें हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त है, टिप्पण, प्रारूपण और ऐसे अन्य शासकीय प्रयोजनों के लिए, जो आदेश में विनिर्दिष्ट किए जाएं, केवल हिन्दी का प्रयोग किया जाएगा ।
 
9. हिन्दी में प्रवीणता-
 
यदि किसी कर्मचारी ने-
 
(क) मैट्रिक परीक्षा या उसकी समतुल्य या उससे उच्चतर कोई परीक्षा हिन्दी के माध्यम से उत्तीर्ण कर ली है;या
 
(ख) स्नातक परीक्षा में अथवा स्नातक परीक्षा की समतुल्य या उससे उच्चतर किसी अन्य परीक्षा में हिन्दी को एक वैकल्पिक विषय के रूप में लिया हो; या
 
(ग) यदि वह इन नियमों से उपाबद्ध प्ररूप में यह घोषणा करता है कि उसे हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त है;
 
तो उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसने हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त कर ली है ।
 
10. हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान-
 
(1) (क) यदि किसी कर्मचारी ने-
 
(i) मैट्रिक परीक्षा या उसकी समतुल्य या उससे उच्चतर परीक्षा हिन्दी
विषय के साथ उत्तीर्ण कर ली है; या
 
(ii) केन्द्रीय सरकार की हिन्दी परीकाा योजना के अन्तर्गत आयोजित प्राज्ञ
परीक्षा या यदि उस सरकार द्वारा किसी विशिष्ट प्रवर्ग के पदों के सम्बन्ध में उस योजना के अन्तर्गत कोई निम्नतर परीक्षा विनिर्दिष्ट है, वह परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है;या
 
(iii) केन्द्रीय सरकार द्वारा उस निमित्त विनिर्दिष्ट कोई अन्य परीक्षा उत्तीर्ण
कर ली है; या
 
(ख) यदि वह इन नियमों से उपाबद्ध प्ररूप में यह घोषणा करता है कि उसने ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया है;
 
तो उसके बारे में यह समझा जाएगा कि उसने हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
 
(2) यदि केन्द्रीय सरकार के किसी कार्यालय में कार्य करने वाले कर्मचारियों में से अस्सी प्रतिशत ने हिन्दी का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया है तो उस कार्यालय के कर्मचारियों के बारे में सामान्यतया यह  समझा जाएगा कि उन्होंने हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
 
(3) केन्द्रीय सरकार या केन्द्रीय सरकार द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट कोई अधिकारी यह अवधारित कर सकता है कि केन्द्रीय सरकार के किसी कार्यालय के कर्मचारियों ने हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है या नहीं।
 
(4) केन्द्रीय सरकार के जिन कार्यालयों में कर्मचारियों ने हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है उन कार्यालयों के नाम राजपत्र में अधिसूचित किए जाएंगे;
 
परन्तु यदि केन्द्रीय सरकार की राय है कि किसी अधिसूचित कार्यालय में काम करने वाले और हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान रखने वाले कर्मचारियों का प्रतिशत किसी तारीख में से
उपनियम (2) में विनिर्दिष्ट प्रतिशत से कम हो गया है, तो वह राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित कर सकती है कि उक्त कार्यालय उस तारीख से अधिसूचित कार्यालय नहीं रह जाएगा ।
 
11. मैनुअल, संहिताएं, प्रक्रिया संबंधी अन्य साहित्य, लेखन सामग्री आदि
 
(1) केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों से संबंधित सभी मैनुअल, संहिताएं और प्रक्रिया संबंधी अन्य साहित्य, हिन्दी और अंग्रेजी में द्विभाषिक रूप में यथास्थिति, मुद्रित या साइक्लोस्टाइल किया जाएगा और प्रकाशित किया जाएगा।
 
(2) केन्द्रीय सरकार के किसी कार्यालय में प्रयोग किए जाने वाले रजिस्टरों के प्ररूप और शीर्षक हिन्दी और अंग्रेजी में होंगे।
 
(3) केन्द्रीय सरकार के किसी कार्यालय में प्रयोग के लिए सभी नामपट्ट, सूचना पट्ट, पत्रशीर्ष और लिफाफों पर उत्कीर्ण लेख तथा लेखन सामग्री की अन्य मदें हिन्दी और अंग्रेजी में लिखी जाएंगी, मुद्रित या उत्कीर्ण होंगी;
 
परन्तु यदि केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, केन्द्रीय सरकार के किसी कार्यालय को इस नियम के सभी या किन्हीं उपबन्धों से छूट दे सकती है।
 
12. अनुपालन का उत्तरदायित्व-
 
(1) केन्द्रीय सरकार के प्रत्येक कार्यालय के प्रशासनिक प्रधान का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह–
 
(i) यह सुनिश्चित करे कि अधिनियम और इन नियमों के उपबंधों और उपनियम (2) के अधीन जारी किए गए निदेशों का समुचित रूप से अनुपालन हो रहा है;और
 
(ii) इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त और प्रभावकारी जांच के लिए उपाय करे ।
 
(2) केन्द्रीय सरकार अधिनियम और इन नियमों के उपबन्धों के सम्यक अनुपालन के लिए अपने कर्मचारियों और कार्यालयों को समय-समय पर आवश्यक निदेश जारी कर सकती है ।

 

बुंदेलखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है । भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट हैं, और भौतिक तथा सांस्कृतिक रुप में निश्चित हैं। वह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार की समानता और जलवायु की समता है, वरन् उसके इतिहास, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता का आधार भी एक ही है। वास्तव में समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है ।
 
बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना नदी है और इस सीमारेखा को भूगोलविदों, इतिहासकारों, भाषाविदों आदि सभी ने स्वीकार किया है । पश्चिमी सीमा-चम्बल नदी को भी अधिकांश वीद्वानों ने माना है, परंतु ऊपरी चम्बल इस प्रदेश से बहुत दूर हो जाती है और निचली चम्बल इसके निकट पड़ती है । वस्तुत: मध्य और निचली चम्बल के दक्षिण में स्थित मध्यप्रदेश के मुरैना और भिण्ड जिलों में बुंदेली संस्कृति और भाषा का मानक रुप समाप्त-सा हो जाता है । चम्बल के उस पार इटावा, मैनपुरी, आगरा जिलों के दक्षणी भागों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । भाषा और संस्कृति की दृष्टि से ग्वालियर और शिवपुरी का पूर्वी भाग बुंदेलखंड में आता है और साथ ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले से लगा हुआ भिण्ड का पूर्वी हिस्सा (लहर तहसील का दक्षिणी भाग) भी, जिसे भूगोलविदों ने बुंदेलखंड क्षेत्र में सम्मिलित किया है । अतएव इस प्रदेश की उत्तर-पशचिम सीमा में मुरैना और शिवपुरी के पठार तथा चम्बल-सिंध जलविभाजक, जोकि उच्च साभूमि है, आते हैं । वास्तव में, यह सीमा सिंध के निचले बेसिन तक जाती है और वह स्थायी अवरोधक नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि चम्बल और कुमारी नदियों के खारों और बीहड़ों तथा दुर्गम भागों के कारण एवं मुरैना और शिवपुरी के घने जगलों के होने से बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार उस पार नहीं जा सका । बुंदेलखंड का पश्चिमी सीमा पर ऊपरी बेतवा और ऊपरी सिंध नदियाँ तथा सीहोर से उत्तर में गुना और शिवपुरी तक फैला मध्यभारत का पठार है । मध्यभारत के पठार के समानांतर विध्यश्रेणियाँ भोपाल से लेकर गुना तथा शिवपुरी के कुछ भाग तक फैली हुई हैं और अवरोधक का कार्य करती हैं ।-२१ इस प्रकार पश्चिम में रायसेन जिले की रायसेन और गौहरगंज तहसीलों के पूर्वी भाग, विदिशा जिले की विदिशा, बासौदा और सिरोंज तहसीलों के पूर्वी भाग; जिनकी सीमा बेतवा बनाती है; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तथा शिवपुरी की पिछोर और करैरा तहसीलें, जिनकी सीमा अपर सिंध बनाती है, बुंदेलखंड के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र हैं । इनमें विदिशा और पद्मावती (पवायाँ) के क्षेत्र इतिहासप्रसिद्ध रहे हैं । विदिशा दशार्णी संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है । वैदिश और पद्मावती कै नागों की संस्कृति बुंदेलखंड के एक बड़े भू-भाग में प्रसरित रही है । चंदेलों के समय वे इस जनपद के अंग रहे हैं । सिद्ध है कि इन क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा जितनी इस जनपद से मेल खाती है, उतना ही उनका प्राकृतिक परिवेश और वातावरण ।
 
भौतिक भूगोल में बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा विंध्यपहाड़ी श्रेणियाँ बताई गयी हैं, जो नर्मदा नदी के उत्तर में फैली हुई हैं ।-२२ लेकिन संस्कृति और भाषा की दृष्टि से यह उपयुक्त नहीं है, क्येंकि सागर प्लेटो के दक्षिण-पूर्व से जनपदीय संस्कृति और भाषा का प्रसार विंध्य-श्रेणियों के दक्षिण में हुआ है । इतिहासकारों ने नर्मदा नदी को दक्षिणी सीमा मान लिया है, संभवत: छत्रसाल बुंदेला की राज्य-सीमा को केन्द्र में रखकर; लेकिन जनपदीय संस्कृति और भाषा विंध्य-श्रेणियों और नर्मदा नदी से प्राकृतिक अवरोधक पार कर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिलों तक पहुँच गई है । भूगोलवेत्ता सर थामस होल्डिच के अनुसार सभी प्राकृतिक तत्त्वों में एक निश्चित जलविभाजक रेखा, जो एक विशिष्ट पर्वतश्रेणी द्वारा निर्धारित होती है, अधिक स्थायी और सही होती है ।-२३ अतएव प्रदेश की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी (गोंडवाना हिल्स) और दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी उचित ठहरती है । इस आधार पर होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें तथा नरसिंहपुर का पूरा जिला बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । कुछ भाषाविदों ने इन क्षेत्रों के दक्षिण में बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट और मंडला जिलों अथवा उनके कुछ भागों को भी सम्मिलित कर लिया है, पर उनकी भाषा शुद्ध बुंदेली नहीं है, और न ही उनकी संस्कृति बुंदेलखंड से मेल खाती है । इतना अवश्य है कि बुंदेली संस्कृति और भाषा का यत्किचिंत प्रभाव उन पर पड़ा है । ऊँचाई पर श्थित होने से कारण वे पृथक् हो गये हैं । महादेव-मैकल पर्वतश्रेणियाँ उन्हें कई स्थलों पर अलग करती हैं और अवरोधक सिद्ध हुई हैं ।
 
दक्षिणी सीमा के संबंध में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि विंधयश्रेणियों और नर्मदा नदी को पार कर बुंदेली संस्कृति और भाषा यहाँ कैसे आई ? इस समस्या का उत्तरह इतिहास में खोजा जा सकता है । इतिहासकार डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि भारशिवों (नवनागों) और वाकगटकों के इस क्षेत्र में बसने से कारण दक्षिण के इस भाग का संबंध बुंदेलखंड से इतना घनिष्ट हो गया था कि दोनों मिलकर एक हो गये थे और उस समय इन दोनों प्रदेशों में जो एकता स्थापित हुई थी, वह आज तक बराबर चली आ रही है । साठ वर्षीं तक नागों के यहाँ रहने के इतिहास के यह परिणाम निकला है कि यहाँ के निवासी भाषा और संस्कृति के विचार से पूरे उत्तरी हो गये हैं ।-२४ गुप्तों के समय वाकाटक भी यहाँ रहे। कुछ विद्वान् झाँसी जिले के बागाट या बाघाट को, जो बिजौर या बीजौर के पास है, वाकाटकों का आदिस्थान सिद्ध करते हैं, जबकि कुछ इतिहासकार पुराणों में कथित किलकिला प्रदेश का समीकरण पन्ना प्रदेश से करते हुए उसे वाकाटकों की आदि भूमि मानते हैं । वाकाटकों के बाद जेजाभुक्ति के चंदेलों और त्रिपुरी के कलचुरियों के राज्यकाल में भी यह क्षेत्र बुंदेलखंड से जुड़ा रहा । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी की गोंडवाना हिल्स है, जो जबलपुर के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी से मिल जाती है ।
 
बुंदेलखंड के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणियाँ, भानरेर श्रेणियाँ, कैमूर श्रेणियाँ और निचली केन नदी है । दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वत है, इस कारण नरसिंहपुर जिले के पूर्व में स्थित जबलपुर जिले के दक्षिण-पश्चिमी समतल भाग अर्थात् पाटन और जबलपुर तहसीलों का दक्षिण-पश्चिमी भाग बुंदेलखंड के अंतर्गत आ गया है । उनकी भाषा और संस्कृति बुंदेली के अधिक निकट है, किंतु दमोह पठार के दक्षिण-पूर्व में स्थित भानरेर रेंज पाटन और जबलपुर तहसीलों के उत्तरी और उत्तरपूर्वी भागों को बुंदेलखंड से विलग कर देती है । भानरेर श्रेणियों के उत्तर-पूर्व में कैमूर श्रेणियाँ स्थित हैं, जिनके पश्चिम में स्थित पन्ना बुंदेलखंड में है और पूर्व में बघेलखंड है । पन्ना जिले की तहसीलों पवई और पन्ना के पूर्व सँकरी पट्टी में बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार है । टोंस और सोन नदियों के उद्गम का भूभाग दक्षिण-पश्चिम की उस संस्कृति से अधिक प्रभावित है, -२५ जो कि बुंदेलखंड से मिलती-जुलती है । पन्ना जिले के उत्तर में पन्ना-अजयगढ़ की पहाड़ियों का सिलसिला चित्रकूट तक चला गया है । इसलिए बाँदा जिले का वह भाग जो छतरपुर जिले के उत्तर-पूर्वी कोने और पन्ना जिले के उत्तरी कोने से बिलकुल सटा हुआ है, जो उत्तर में गौरिहार (जिला-छतरपुर) से लेकर चित्रकूट (जिला-बाँदा) तक पहाड़ी क्षेत्र की एक सीमा-रेखा बनाता है और जिसके उत्तर में बाँदा का मैदानी भाग प्रारम्भ हो जाता है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । बाँदा जिले का शेष मैदानी भाग उससे बाहर पड़ जाता है । इस तरह बुंदेलखंड की उत्तर-पूर्वी सीमा निचली केन बनाती है ।
 
भू-संरचना और राजनीति की दृष्टि से बाँदा जिला बुंदेलखंड का एक भाग माना गया है, पर उसके अधिकांश भाग की भाषा बुंदेली नहीं है और उसकी संस्कृति बुंदेली संस्कृति से कुछ बातों में भिन्न है । प्राचीन काल में बाँदा चेदि में सम्मिलित नहीं था, भारशिवों और नवनागों के साम्राज्य से बाहर था और वाकाटकों की संस्कृति यहाँ तक पहुँच नहीं पाई; किंतु उसका कालिंजर से लेकर चित्रकूट तक का भाग बहुत प्राचीन समय से ही इस संस्कृति का अंग रहा है । बाँदा के उत्तर-पूर्व में चिल्ला नामक ग्राम में आल्हा-ऊदल का निवास खोजा गया है ।-२६ विंध्यवासिनी देवी का मंदिर बुंदेलों का तीर्थस्थल रहा है । चंदेलों के समय बाँदा का अधिकांश भाग बुंदेली प्रभाव में रहा और बुंदेलों ने भी टोंस नदी तक अपना शासन फैलाया । संभवत: इसी कारण बाँदा जिले से उत्तर-पश्चिमी भाग में भी बुंदेली भाषा और संस्कृति की पैठ है । इस प्रकार बुंदेलखंड के उत्तर-पूर्व में निचली केन नदी की तटीय पट्टी का क्षेत्र, बाँदा जिले से नरैनी और करबी तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, सम्मिलित है। पूर्व में पन्ना और दमोह जिले तथा दक्षिण-पूर्व में जबलपुर जिले की पाटन और जबलपुर तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, जो मैकल श्रेणियों तक चला गया है, बुंदेलखंड में आता है । इसके अतिरिक्त सोन और टोंस की उद्गम घाटी, जो नर्मदा की तरफ दक्षिण की ओर खुलती है और जिसमें पाटन, जबलपुर, सिहोरा और मुड़वारा तहसीलों की लंबी-सी पट्टी का क्षेत्र है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है ।
 
उपर्युक्त आधार पर बुंदेलखंड प्रदेश में निम्नलिखित जिले और उनके भाग आते हैं और उनसे इस प्रदेश की एक भौगोलिक, भाषिक एवं सांस्कृतिक इकाई बनती है ।
 
(१) उत्तर प्रदेश के जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर जिले और बाँदा जिले की नरैनी एवं करबी तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग ।
 
(२) मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलेतथा जबलपुर जिले की जबलपुर एवं पाटन तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग; होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें; रायसेन जिले की उदयपुर, सिलवानी, गौरतगंज, बेगमगंज, बरेली तहसीलें एवं रायसेन, गौहरगंज तहसीलों का पूर्वी भाग; विदिशा जिले की कुरवई तहसील और विदिशा, बासौदा, सिरोंज तहसीलों के पुर्वी भाग; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तहसीलों; शिवपुरी जिले की पिछोर और करैरा तहसीलें, ग्वालियर की पिछोर, भांडेर तहसीलों और ग्वालियर गिर्द का उत्तर-पूर्वी भाग; किंभड जिले की लहर तहसील का दक्षिणी भाग ।
 
उपर्युक्त भूभाग कै अतिरिक्त उसके चारों ओर की पेटी मिश्रित भाषा और संस्कृति की है, अतएव उसे किसी इकाई के साथ रखना ही होगा । इस कारण जो जिले (जिनके भूभाग विशुद्ध इकाई में सम्मिलित हैं) अपने को बुंदेलखंड का अंग मानते हैं, उन्हें बुंदेलखंड में सम्मिलित किया जा सकता है । ऐसे जिलों में बाँदा, जबलपुर और गुना तो आते हैं, पर अन्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । मैंने तो हाण विशुद्ध इकाई को ही महत्त्व दिया है ।
 
 इनमें से  शुद्ध बुन्देली जिले टीकमगढ़, जालौन जिल का अधिकांश भाग, हमीरपुर, ग्वालियर क्षत्र के चन्दरी एवं मुंगावली इलाक, भोपाल व विदिशा जिल का आधा पश्चिमी भाग एवं दतिया की सीमा के भाग है। शेष बुन्देली भाषी जिले छतरपुर, पन्ना, दमोह, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, बालाघाट, छिन्दवाड़ा तथा दुर्ग के कुछ भाग है। ऐतिहासिक परम्पराएं, सांस्कृतिक एकता, सामाजिक समानताएं, भौगोलिक सुगमता और विकास की अनुकूलता किसी भी आदर्श राज्य के गुण माने जाते है। बुन्देलखंड राज्य के स्वरूप में य सभी गुण विघमान है। बुन्देलखण्ड का आकार प्रकार स्थापित करने में अनक विद्वानों के जो विभिन्न मत है, उनमें अन्तर बहुत कम है। इन सभी का जो एक सामान्य निष्कर्ष निकलता है उसक अनुसार बुन्देलखंड राज्य के अन्तर्गत 32 जिले आते हैं। व इस प्रकार हैं-
हमीरपुर, झांसी, बांदा, ललितपुर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह, सागर, नरसिंहपुर, भिंड, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना, गुना, विदिशा, सीहोर, भोपाल, रायसन, होशंगाबाद, हरदा, बैतुल, छिंदवाड़ा, सिवनी, मण्डला, बालाघाट, कटनी और जबलपुर।
 
बुन्देली की व्याकरणगत विशेषताएं
 बुन्देली भाषा का बुनियादी शब्द भंडार और व्याकरण अपने जन समाज की भाषा संबंधी हर आवश्यकता पूरी करने योग्य है। यह भाषा समाज के हर प्रकार के विकास के लिए महान अस्त्र है और उसक ऐतिहासिक विकास की महान सफलता भी है।
 
बुन्देली ध्वनि में 10 स्वर 27 व्यंजन हैं। देवनागरी के शेष 16 अक्षर इसमें नही हैं। इन दस स्वरों में से उच्चारण हिन्दी साहित्य से भिन्न हैं।बुनियादी 750 शब्दों में से मुश्किल से 50 शब्द दोनों भाषाआं में समान होगं। इतने ही और शब्दों को खींच तान कर समानता ढूंढी जा सकती है। बाकी बुनियादी तौर पर प्रथक हैं
 
​ क्रि्याओं के विभिन्न काल बनाने के प्रत्ययों में सब एक दूसर से भिन्न  है, और कोई समानता नही है। धातुओं में विकार भी भिन्न प्रकार से होता है।
 
क्रि्याओं में जुड़ने वाल सब प्रत्ययों का हिन्दी में अभाव है। हिन्दी प्रत्यय संस्कृत से लेती है। जो बुंदेली से बिल्कुल नही मिलते हैं।
 
बुन्देली संज्ञा शब्दां की भी हिन्दी से भिन्नता है ।यह भिन्नता भाव वाचक और व्यक्ति वाचक नामों में तो बहुत है ही जाति वाचक नाम भी काफी भिन्न प्रकार के हैं। कारक के चिन्हों में से केवल 4 चिन्ह समान हैं शेष 10 भिन्न हैं। कारण सम्बन्धी विकार भी हिन्दी से भिन्न होता है।
 
बुन्देली सर्वनाम 33 हैं ।10 मूल और 23 रूपंातर क। इनमें केवल 7 एक मूल और 6 रूपांतरों के हिन्दी से समानता रखते हैं ,शेष 26 भिन्न हैं।
 
विशेषण, क्रियाविशेषण, सम्बन्ध बोधक, समुच्चय बोधक और विस्मयाधि बोधक शब्द अधिकतर हिन्दी से भिन्न है।
 
भाषा में प्रयत्न लाधव के नियम बुंदेली भाषा हिन्दी से बहुत आग निकल गई है। उसक संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाओं आदि सब शब्द अति संक्षिप्त होते हैं। स्वरों का भारी उपयोग होता है। अधिकांश मूल शब्द एक दो अक्षरों के ही रह गए हैं। तीन अक्षरों से अधिक वाल शब्द केवल सात हैं। चार से ज्यादा तो बिरल ही होते है। इसक मुकाबल हिन्दी के शब्द अधिकतर भारी भरकम होते हैं।
 
संस्कृत उपसंर्गो का बुंदेली में कोई स्थान नही है।
 
बुन्देली की व्याकरणगत विशेषताएं :
 
बुंदेली की ज्ञात 750 मूल क्रियायं, जिसकी धातुएं 2550 से अधिक हैं। एक – एक क्रि्रया से बंुदली भाषा के लिंग -पुरूष वाच्य और काल भेद से 288 रूप या शब्द बनते हैं। और य रूप 2550 धातुओं के सात लाख से अधिक होते हैं।
 
वकाल वाचक रूपोंं या शब्दों के अलावा इन्हीं धातु मात्र से दो हजार से अधिक भाव वाचक संज्ञाएं बनती है। सामान्य भूत और सामान्य वर्तमान काल वाचक शब्दों के 1530 विशेषण होते हैं।
 
वधातु में ने प्रत्यय जोड़ने से तत्संबंधी विशेष ढंग बताने वाल 600 से अधिक शब्द बनते हैं।
 
इसी प्रकार एक दो अक्षर वाल प्रत्यय जोड़ने से इनक विभिन्न कर्ता वाचक, कर्म वाचक, करण वाचक, विश्ाष क्रिया विशेषण, विशेष आदत वाल, विशेष स्वभाव वाल ,विशेष काम वाल ,पूर्व कालिक क्रिया, सामान्य सिलसिला, सिलसिल का प्रारम्भ, निश्चितता, अभ्यास तथा विशेष अवसर वाची शब्द नियमित रूप से बनते हैं। य सब शब्द शक्ति प्रकरण के अनुसार 15000 से अधिक होते हैं।
 
इसी प्रकार यह भाषा संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण,क्रिया विशेषण, सम्बंध वाचक, समुच्यवाचक विस्मयादि बोधक आदि बुंदेली शब्दों से भरपूर हैं। प्रत्यक संज्ञा शब्द से उस सम्बन्धी विशेषण और क्रिया शब्द अलग होते है। इसी प्रकार विशेषण शब्द की भाव वाचक संज्ञायं और क्रिया शब्द होते है जिनकी संख्या लाखों में पंहुचती है।
 
बुंदेली भाषा जीवंत वैज्ञानिक भाषा है जबकि हिन्दी किसी भी क्षत्र की मातृभाषा नही हैं। यह खड़ी बोली संस्कृत, अंग्रजी की खिचड़ी भाषा हैं ।सच्ची ठोस एकता जनभाषाओं के द्वारा स्वाभाविक रूप से विकसित होती है।
 
बुंदेली का बुनियादी शब्द भंडार और व्याकरण का सांगोंपांग ढांचा शीघ्र प्रकाश में लाने से बंदली गद्य का विकास हो सकगा। इसस एक जीवन्त क्रियाशीलता का विकास होगा। इसस बुंदेली साहित्य की कमी पूरी हो सकगी।
 
 
बुन्देल खंडी और हिन्दी भाषा
 
बुँदलखण्डी में दस स्वर और सत्ताइस व्यंजन हैं । हिन्दी के 16 अक्षर इसमें नहीं हैं। इसक 10 स्वरों में भी 8 स्वरों का उच्चारण बिल्कुल अलग है। इस मुख्य भेद को दखकर हमें चौंकना ने चाहिय क्योंकि 2500 वर्ष पहल ब्राम्ही भाषा की वर्णमाला में 33 अक्षर हैं जिसमें स्वर केवल 6 ही हैं। 250 ई.पू. अशोक के धर्म ले खों से विदित होता हैकि अ,ई,ए,औ ैक  लिए कोई अक्षर नहीं, ऋ, लृ तो हैं ही नहीं। एक हजार ई.पू. की अवस्था भाषा जो संस्कृति की बहिन है, उसमें 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं जो सार के सार हलन्त हैं ही। 1000 ई.पू. की फिनौशियन भाषा में भी केवल 22 अक्षर हैं। इसक और पूर्व की इजिप्शयन भाषा के भाव चित्रों में सिफ‍र् 24 व्यंजन ही है और स्वर दिखते ही नहीं । यूं तो मिश्र की इजिप्शन लिपि तीन खण्डों में चलती है। प्रथम काल पहिल राज्यवश से दसव राज्यवंश 100-1700 ई.पू. तक भावचित्रों में 203 संकत हैं । द्वितीय खण्ड में 14 राज्यवंश से 17वं राज्यवंश तक 1700-525 ई.पू.  में जिस ”हरोटिक” कहते हैं, कुल 24 व्यन्जनों  की वर्णमाला थी। अन्त के काल को ‘कोआप्टिक’ भाषा  525 ई.पू से 638 ईस्वी तक तक आते हुए केवल 7 अक्षर और जुड़ । याने 11 सौ वर्षो में 31 अक्षर वाली भाषा बनी और अंत में लुप्त हो गई। इसी तरह 3 हजार ई.पू. के करीब सुमरी लिपि को अक्कादियों ने अपनी सिमैटिक भाषा के लिए अपना लिया। सुमरी कीलाक्षर लिपि में 41 संकते हैं। जिसमें 36 ध्वनि संकतों से प्राप्त हैं। अक्कादियों के अक्षर से यह मसोपोटमियां और सार पश्चिम एशिया में फैल गई तथा इसी कीलाक्षर लिपि को अनातोली, कनानी, ह्रिवू और हितियों ने अपना लिया। फिर पूर्व की ओर की बाढ़ ने इस एलाम और समस्त ईरान ने अपना लिया। भिन्न-भिन्न भौगोलिक स्थलों ने और दशों ने इस पर भी जरूर असर डाला, परिवर्तन भी किया इसीलिए इसक भावचित्र सिकुड़ और कम होते गए। चित्रात्मक से आरम्भ हुई यह लिपि भावात्मक, ध्वनिआत्मक  तथा अक्षरात्मक स्वरूपों को लांघती हुई वर्णात्मक के स्वरूप में पहुंच गई। असीरी के अक्कदी  में 600 संकत थ।  जिसमें भावचित्र भी भर पड़ थ व सुमर और एलाम पहुँचने पर केवल 120 चिन्हों में रह गई। आखिर 600 ई.पू. में ईरान के अखमानी साम्राज्य ने इन्हीं कीलाक्षरों अर्धवर्णात्मक में जन्म दिया। केवल 41 संकत ही रह गए। यह सब परिव ‍र्‍र्तन 3000 ई. पू. से 600 ई.पू. तक याने 2400 वर्षो में सम्पन्न हुआ। याने कीलाक्षर सुमरी में कुल 41 संकत है जो 36 ध्वनियों से प्राप्त होते हैं । जैस चार संकत राजा, प्रांत, भूमि और अहुर-मज्दा शुद्व भावचित्र हैं । सभी व्यन्जनों में अ स्वर निहित है और जिन व्यंजनों में इ, उ हैं उनक चिन्ह  अलग हैं। इसी तरह सिन्धु-घाटी मोहन-जो-दारो और हरप्पा भाषा में श्री सुधाँषु शंकर राय द्वारा 48 वर्ण अक्षरों को ढूँढा गया है और डा. राव के अनुसार सिंध वर्णमाला में 15 व्यन्जन और सिफ‍र् 5 स्वर ही हैं।
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अगर हम आधुनिक प्रथम शताब्दी  के वैद्याकर्णी वरूरूचि की महाप्राकृत पर नजर डालं तो उनकी परिपाटी के शिष्य आचार्य हमेंन्द्र ने अपभ्रंंश में 9 स्वर और 26 व्यंजन बताए हैं। इसलिय यह स्पष्ट है कि बुन्देली ने तो हिन्दी की बहन है और ने तो संस्कृत की पुत्री। इसको स्वयं स्वतन्त्र भाषा होने का श्रय प्राप्त है। हाँ हो सकता है संस्कृत से बुन्देली ने ठीक उसी प्रकार शब्द लिए हों जैस कन्नड़, तुलुगू, मलयालम भाषाओं ने अपने 1 लाख शब्दों के अनुपात में 60 से 70 हजार शब्द उधार लिए हैं और तमिल ने तो लाख में सिफ‍र् 40 हजार ही संस्कृत शब्द पचाए हैं।
 
 बुन्देली का व्याकरण
 
हिन्दी भाषा ने अपनी  व्याकरण का सारा कलवर संस्कृत से उधार लिया है। इस प्रकार की बात बुन्देली में नहीं है। बुन्देली का प्रारम्भिक युग में कोई व्याकरण अवश्य रहा होगा। जो या तो अब लुप्त हो गया या छानबीन का मोहताज है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि यह कातन्त्र व्याकरण की परम्परा में पली है। साथ ही महश्वर परम्परा याने पाणिनी व्याकरण से बहुत दूर तक अलग है। गम्भीरता से दखन पर महर्षि पाणिनी की व्याकरण शैली लगातार 2468 वर्षो से संस्कृत को अपने पन्ज में जकड़ हुय है, जकड़ं रखगी। जब तक भविष्य युग की मांग के अनुसार टक्कर में दूसरा पाणिनी नहीं  पैदा होता। आज तो भयंकर गति से बढ़ता हुआ आधुनकि ज्ञान हजारों नूतन शब्द तथा नई वाक्य रचना की मांग कर रहा है। नय संदर्भ में नय ज्ञान  को नई व्याकरण परिपाटी भी चाहिय। कैस.. ? कब.. ? यह तो भविष्य के गर्भ में है । पर आभास होने लगा है कि संस्कृत को पाणिनी के स्थान पर नय पाणिनी की आवश्यकता है। पाणिनी की जकड़ में फंसी संस्कृत अब छटपटाने लगी हैं। लेकिन बुन्देली ने पहल से ही इस प्रकार की परिधि में घिरना अस्वीकार कर दिया और बोलचाल की परिपाटी वाली कातन्त्र व्याकरण को सहज अपनाया। इसलिए कि बोलचाल की भाषा सदा गिरती पड़ती सदा गतिमान रहती है तथा  वह सदा-सदा आम जन समुदाय के निकट से निकट ही रहगी, इसी कारण बुन्देली का दामन कातन्त्र की हवा में हिलोंर ले ता है।
 
कातन्त्र की परम्परा ऐन्द्र व्याकरण से प्रारम्भ होती है जिस कुमार व्याकरण भी कहते हैं। युधिष्ठर मीमांसक ने ” व्याकरण शास्त्र का इतिहास” में आदि व्याकर्णी इन्द्र को आठ हजार ई.पू. माना है। शायद यह तिथि अनिश्चित हो, कालगणना में अतिशयोक्ति हो, लेकिन इसस आदि पुरानापन तो विदित होता ही है। इन्द्र के बाद वायु, भारद्वाज, भागुरी, पोषकर, चारायण और काषकृत्सन हैं। अन्तिम तीन समकालीन हैं। काषकृत्सन का व्याकरण तो 24 हजार श्लोकों में था। लक्ष्य रह पाणिनी की व्याकरण से कहीं बड़ी ,दुर्भाग्य से यह अब अप्राप्त है, फिर भी इसक 141 सूत्र मिलते हैं । इसका सम्पूर्ण धातु पाठ कन्नड़ भाषा में मिला है। जिस बाद में फिर से संस्कृत में उल्था किया गया है। सातवाहन काल के एक ब्राण शर्ववर्मा ने काषक्रत्सन का अत्यन्त प्रारम्भिक रूप सरली करण कर ”कातन्त्र” के नाम से लिखा हैं। यही ”कातन्त्र” बुन्देली भाषा की शिक्षा परिपाटी का स्रोत है। जिसकी उर्धवक्ता जड़ं वदकालीन संस्कृत से कहीं आग पूर्वकाल में बिखरी पड़ी है। प्रश्न फिर भी खड़ा है कि ‘कातन्त्र’ का विस्तार काल कितना है.. ? आचार्य इन्द्र, वायु, भारद्वाज आदिकाल से प्रथम, द्वितीय और तृतीय युग लपट हैं तथा अंत में चतुर्थ काल में पोषकर चारायण और काषकृत्सन है। आदिकालीन आचार्य इन्द्र की परिपाटी आठ सौवर्षोंं से कम प्रतीत नहीं होती हैं क्योंकि आदिकाल कभी भी लम्बा होता है। बुद्धि का विकास जैस-जैस बढ़ता है उसी तरह अन्य सुधार के काल कमोवश छोट होते चल जाते हैं। फिर आश्चर्य वायु और भारद्वाज द्वितीय तथा तृतीय युग लगभग 500 और 400 वर्णां का निश्चित रहा होगा। तब कहीं आचार्य पोषकर, चारायण और काषकृत्सन ने एक ही युग के समकक्ष विराजमान हो अपनी परिपाटी को संजोगा- संवारा होगा। जिसका प्रारम्भ से अन्त तक का काल अवश्य से तीन सौ वर्षो तक चलता रहा होगा। अगर इसी काल को आचार्य पाणिनी के काल 480 ई.पू.‍र् जोड़ दिया जाय तो 2480 ई.पू. होता है। यान बुन्देली अपनी काषकृत्सन परिपाटी की पुरानी जड़ों में सूक्ष्म रूप से निश्चित विद्यमान चली आ रही है। फर्क इतना है कि उन बदलते गुणों में इसका  क्या नाम था ..? पता नहीं। नामांकरण हुआ  भी था या नहीं.. ? इसका कोई ज्ञान नहीं । शायद भविष्य की खोजों में कहीं मिल।
 
कातन्त्र के परिपक्व होने की उपरोक्त गणना कतिपय विद्वितजन कपलां  कल्पित भी कह सकते हैं। लेकिन पाणिनी की परिपाटी के विषय में स्वयं पाणिनी का वर्णन इस सन्दर्भ में हमारा मार्गदर्शक होगा। उन्होंने लिखा है कि उनक पहिल 65 व्याकरण‍रचार्य  गुजर है। अगर इन समस्त आचार्यो  का काल 30 वर्ष प्रति व्यक्ति रखं तो काल 1950 वर्ष बैठता है ।इसी काल में पाणिनी का काल जोड़ दं तो 2430 ई.पू. होता है। साथ ही पाणिनी ने अपने पहल 10 आचार्यो  की भिन्न-भिन्न परिपाटी का उल्लख किया है। इनक नाम है- शकटायन, शाकल्य, आदिशाली, गाग्र्य, गालव, भारद्वाज, काश्यप, सनक, स्फोटायन और चक्रवर्यण। एक परिपाटी का सुधार दूसरी में पहुँत तो पहुंचते काफी समय व्यतीत होता है । अगर औसतन प्रत्यक का समय 200 वर्ष रखं तो काल दो हजार वर्षो का होता है। और इसमें पाणिनी का समय 480 ई.पू.  का समय निकलता है। उपरोक्त 55 व्याकर्णाचार्यो और दस भिन्न-भिन्न परिपाटियों का काल एक ही चक्र में समान्तर चलते हैं और एक दूसर की बराबरी पर उतर आते हैं और तिथियां भी एक सी दर्शाते हैं।
 
 बुन्देली का स्वर स्फुर्ण भेद
 
प्रथम हम स्वरों के उच्चारण को ही पकड़ते है।  बुंदेली में दस स्वरों का उच्चरण हिन्दी के आठ स्वरों बिल्कुल भिन्न है। यह कैस जाना जाव.. ? इसक लिए हमें ध्वनिशास्त्र पर नजर डालनी होगी। ध्वनि में केवल भेद ही नहीं वजन भी होता है। हमार भाषा-शास्त्रियों ने इस बड़ी बारीकी से नापा है। शब्द ध्वनि को 8 परमाणुओं की एक मात्रा कहा है। व्यन्जनों में एक मात्रा 8 परमाणुओं की होती है। डढ़ मात्रा 12 परमाणुआंं की। 2 मात्रा 16 परमाणुआंं  की ,ढाई  मात्रा 20 परमाणुआं की और 3 मात्रा 24 परमाणुओंं की होती है। इस क्रम में बुन्देली का स्वर उच्चारण वैभिन्न समझनं के लिय हम केवल ‘अ’ स्वर को ले ते हैं। और इसक उच्चार्णो के पांचों अलगाव को मात्राओं में दर्शाते हैं।
 
स्वर नामाकरण मात्रा परमाणु संख्या
 
1.लघुउत्तर(अ-अनमर्ति)18
 
2.लघु(अ-क) हस्व112
 
3.गुरू(अ) दीर्घ2्!!16
 
4.गुरूतर(अ) अतदीर्घ2!!20
 
5.गुरूतम प्लुत324
 
इस तालिका को दखकर हम ठीक-ठीक समझ सकंग कि ध्वनि भेद कैसा होता है। हिन्दी के इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ का उच्चरण 2!! से 3 मात्रा  का होता है जबकि बुंदेली में इनकी ध्वनियां 1 से 2 मात्राओं, याने 8 से 16 परमाणुओं के माध्य से स्फुरिट होता है। इन्हीं मात्राओं  की वहज से बुंदेली काव्य तथा संगीत में कितनी सरसता आती होगी इसका अन्दाजा लगाया नहीं जा सकता । अभी तक बुन्देली जगत ने ईश्वरी सरीख कवियों को इस मापदण्ड पर तौला नहीं है और ने उनकी स्वर ध्वनियों को संगीत लहरी में लखबद्ध किया है।
 
बुन्देली में ई, ए, इ, ओ, औ, ऐ प्रत्यय हैं जब य प्रत्यय बुन्देली धातु से जुड़ते हैं तो  हिन्दी और बुन्देली का एक समान उच्चारण हो जाता है। जैस बुन्देली चर धातु से चल शब्द और उसमें जब उपरोक्त प्रत्यय जुड़ते हैं तो इनका रूप चलो, चल, चली इत्यादि हिन्दी के समान ही होता है। लेकिन याद रह इनकी बनावट में जमीन आसमान का फर्क है। क्योंकि फर्क ‘अ’ की पूर्व ध्वनि का है। बुँदलखण्डी उच्चारण में ‘अ’ इस ध्वनि की कमी हो जाती है। सबस विचित्र बात यह है कि बुन्देली में संस्कृत जैसी संधि अमान्य है। इसी अक्षर स्वर और व्यंजन एक दूसर के सामन या बाद में स्वच्छन्दता से आत और व्यंजन एक दूसर के सामने या बाद में स्वच्छन्दता से आत और बन रहते हैं। पास-पास रहन से उनक उच्चारण में कोई फर्क पड़ता ही नहीं।
 
बुन्देली में हिन्दी के अक्षर ऋ  ल  अं अ:  ड, , ढ, ष, य, व, क्ष, त्र ज्ञ नहीं है। और स्वरों में अ आ को छोड़कर इ, ई उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त अक्षर माना है। इसलिय इनक उच्चारण में बड़ा फर्क पड़ गया है। उदाहरण लीजिय-
‘ई’ स्वतन्त्र स्वर ने होकर अ+ईअी है इसी तरह ‘उ’ पूणाँस्वर नहीं बल्कि अ+उअु अथवा अ+ऐअै, अ+ओअऔ इत्यादि । इसी संदर्भ में उपरोक्त ‘इ’ की लिपि का कुछ इतिहास भी दखं। दक्षिण भारत के मदुरा तथा तिरूनलवली जिल के सित्तनवासल स्थान के गुफा लेखों से  क. व्ही. सुब्रामण्यम अययर ने यह सिद्ध किया कि इनमें ‘इ’ अक्षर के लिए एक दण्ड  और दोनों ओर दो बिन्दुओं का चिन्ह मिलता है। इस ‘इ’ के लिए उत्तर भारत में इस प्रकार का चिन्ह 300 ई.पू. तक के ब्राी लेखकोंं में कहीं भी प्राप्त नहीं होता। लेकिन कालांतर में यही चिन्ह उत्तर और पश्चिम भारत के लेखों में मिलता है। इसलिए यह सहज कहा जा सकता है कि ई.प.ू तीसरी शताब्दी में‘ ई’ का यह चिन्ह दक्षिण से उत्तर पहुँच गया था। और इसका स्वरूप ‘इ’ बना। इसस भी अनुमान किया जाता है कि उत्तर भारत में‘ ई’ का स्वरूप बहुत बाद में जुड़ा। चूँकि बुन्देली इस युग से बहुत पहल प्रचलित थी तो इस ‘इ’ की ध्वनि जैस वैदिक काल के पूर्व थी उसी तरह इसका उच्चारण कायम रखा और अ+ई​िअ की तरह युक्ताक्षर माना तथा स्वतन्त्र स्वर मानने से इंकार कर दिया।
 
 
यहां  पर थोड़ी चर्चा वैज्ञानिक ढंग स, बुन्देली किस काल में बनती रही यह भी मालूम करना जरूरी है। अस्तु आधुनिक विद्वानों ने वैदिक भाषा के काल को पांच सौ ई.पू.मध्यकाल 500-1000 सन् तथा वर्तमान काल 1000 सन् से आज तक माना है। यह गणना ढर से पाश्चात्य पण्डितों से वदों की रचनाकाल निर्धारित करने की वजह से है। लेेकिन जब ऐतिहासिक दृष्टि से व ासुदशरण अग्रवाल ने पाणिनी का काल 484 ई.पू. कूता है तो वदों का काल 1500 ई.पू. मानना आश्चर्य होगा। वदों की काल रचना 25 सौ से 15 सौ ई.पू. होना निर्धारित हो चुकी तो ‘छन्दस पाली’ प्राकृत तथा अन्य बोलियों की उमर का अंदाजा लेगाना आसान है। पाली प्रकृत की प्रथम अवस्था का नाम है। सम्भव इसी कारण भारत मुनि ने प्राकृत भाषाओं का उल्लख मागधी, अवन्सी, प्राच्य, शैरसनी, अर्ध मागधी, बाल्हकि और दक्षिणात्य मेंकिया। बाद में आचार्य हमेंन्द ने पैशाची और लाटी अधिक जोड़ दी,। लेकिन दखा जाय तो मागधी, अर्धमागधी, शैरसनी और महाराष्ट्रीय के य चार प्राकृतं ही मुख्य हैं। पाली भी पंक्ति पाठ का अपभ्रस शब्द है। पाली के पूर्व वैदिक भाषा को ‘छन्दस’ कहते थ। ‘छन्दस’ ने ही प्राकृतों को जन्म दिया अथवा दोनों समकक्ष चलती रही। फिर भी छन्दस को पाली तक पहुँचने में 15सौ वर्ष लग होंग। तब प्राकृत रूप उभरता है। यह युग 500 ई.पू. से एक हाजर सन मानते हैं। लेकिन पाली का सादि स्वरूप पाली में निहित है।
 
 उसी तरह पाली छन्दस् से गुत्थी हुई है। अर्थात प्राकृत की परिपाटी भी छन्दस्  के गर्भ‍र् में निहित है। मुख्यत: पाली बुद्ध के वचनों में है और बुद्ध  का काल 624 -544 ई.पू. माना जाता है। पर पाली शब्द का प्रयोग ईस्वीसन की 5वीं शताब्दी में आचार्य बुद्ध घोष ने सर्वप्रथम उपयोग किया है और ई.पू. पाली शब्द का कहीं प्रयोग नहीं मिलता तो क्या 624 ई.पू. 500 सन् याने 11सौ वर्षो तक पाली थी ही नहीं.. ?  या बनती रही ..? अगर इतना लम्बा काल नामकरण के लिय लगता है तो उद्गम कहाँ रखना चाहिय.. ? इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। आचार्य हरिहर निवास द्विवदी ने तो बौद्ववाँगमय की पाली तथा शैरसनी को वत्रवती की पुत्री कहा है। याने उसक  भौगोलिक क्षत्र को भी निर्धारित कर दिया है। इसलिए प्राकृतों से निकलनवाली या उसक समकक्ष सब बोलियों का उद्गम ‘छन्दस’ से है। याने बुन्देली का प्रारंभिक काल 15सौ ई.पू. मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती ।
 
पूर्व में हमने बुन्देली और हिन्दी उच्चारण भेद को समझा अब हम इनक अक्षर में दोनों को भी दखं  संस्कृत या हिन्दी का आदि स्वर ऋ’ बुन्देली में अ, इ, उ से सीमित रहता है। प्राकृत में भी ‘ऋ’ ध्वनि अ,इ,उ स्वरों से किसी एक में बदल जाती है।
 
संस्कृत ..पाली… .प्राकृत…….बुन्देली..
 
ऋक्ष    अच्छ   अच्छ   सध (ई)
 
हृदय    हदय    हदय    हिरदै (र)
 
मृग    मग    मग    मिरगा (ई)
 
पुष्कर   पोक्खर  पोक्खर  पुखरा (उ)
 
मृत    मिट    मिट    माटी(अ)
 
अब हिन्दी के अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ए, ऐ, ओ, औ स्वरों का उच्चारण बुन्देली में इस प्रकार होगा अ, आ, ​िअ, अी, अु, अू, अ, अै, औ हिन्दी के अं आ: तो संयुक्त अक्षर होने के नाते बुन्देली में शामिल नहींहैं। साथ ही हिन्दी का एअ+ई औअ+ऊ तथा ए की वृद्धि ऎ और ओ की बुद्धि औ है इसलिए प्रारम्भिक रूप से बुन्देली में अ आ दो ही मूल स्वर हैं। इ उ तो दोनों हलन्त है। अत: हम कह सकते हैं कि अ, इ, उ ही बुन्देली के स्वर मात्र हैं। प्रथम ‘अ’ पूर्णस्वर तथा अंत के इ उ हलन्त हैं।
 
 धातु
 
किसी भी भाषा का मूलाधार धातुंए हैं। आज के पाश्चात्य विद्वान धातुओं को अमान्य करने लग हैं। कारण कुछ भी हो पर लगता है कि उनकी भाषाऐं इतनी मिश्रित हैं कि मूल का पता पाना असम्भव है।  लेकिन अगर हम अपने धातु जगत को भूल जावं तो समस्त भाषाओं का कलवर ही ढह जावगा।
हम प्रथम संस्कृत को लेते है। पाणिनि के अष्टाध्याई में 1944 संस्कृत की धातुयं गिनाई हैं। भट्टो जी दीक्षित ने उनक ग्रंथ पर टीका टिप्पणी करते हुए  2148 धातुंए लिखी हैं जिनमें दो सौ धातुऐं वैदिक काल में ही लुप्त हो गईं। इसलिए उनक अर्थ और उपयोग नष्ट हो गए । और इसी तरह दो सौ अन्य धातुओं का उपयोग ही समाप्त हो गया। अगर लेखा-जोखा किया जाय तो तो कुल धातुऐं  1748 रह जाती है। आम भ्राँति संस्कृत के बार में यह भी है कि अन्य भारतीय भाषाएं इन्ही धातुओं पर अपना कलेवर बांध हुए हैं। बात ऐसी नहीं,  आचायों ने महाराष्ट्रीय प्राकृत की 639 धातुयं हैं और अपभ्रंश की 850 धातुंए हैं । दोनों मिलाकर 1489 हैं और इनका संस्कृत से बिल्कुल अलगाव है। बुन्देली की भी अपनी धातुएं हैं जो इन्ही से ही ली गई हैं। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है  डा.रघुवीर ने अपनहिन्दी शब्द कोष में संस्कृत से हिन्दी के लिए सरल 520 धातुंए लेना समुचित समझा और कहा कि बीस उप-सर्ग और 80 प्रत्यय जोड़ने से लाखों शब्द बनाय जा सकते हैं। लेकिन इतने शब्द अभी पैदा नहीं हुए हैं। बुन्देली की व्याकरण के लेखक श्री नुना जी ने अपनी पुस्तक ”बुन्देली भाषा का बुनियादी शब्द भंडर मे ” लगभग बुनियादी ​क्रिया शब्द 750 की बात कहीं है। बुन्देली में प्रत्यक मूल शब्द को लिंग, वचन, पुरूष, वाच्य और काल भेद से करीब 288 शब्द होते हैं तो सिफ‍र् 750 के 2 लाख 16 हजार शब्द अनायास बने हुए है।
 
लक्ष्य रह कि संस्कृत उपसर्गो का बुन्देली में कोई उपयोग नहीं क्योंकि बुँदलखंडी इसमें बिल्कुल भिन्न है। जब यह संस्कृत की जोड़ में उतनी दूर है तो हिन्दी की बात ही क्या! क्रियाओं के विभिन्न काल दर्शाने वाल प्रत्यय स्वंय भिन्न हैं। कोई एक दूसर से मिलता नहीं । धातुओं में विकार भी अलग प्रकार से होता है। वैस तो क्रियाओं में जुड़ने वाल सब प्रत्ययों का हिंदी में अभाव है। हिन्दी तो सीध संस्कृत से प्रत्यय उधार लेती है। जिसक बुँदलखण्डी से कोई मलजोल बैठता ही नहीं। बुन्देली में संज्ञा शब्द कितने ही दहाती से प्रतीत क्यों ने हो, पर व स्वयं में सहज हैं और हिन्दी से उनकी विशेष भिन्नता दिखती है। यही भिन्नता भाव-वाचक, व्यक्तिवाचक, जातिवाचक नामों में भी प्रतीत होती है। व्याकरण का मूलाधार अक्षरों के उच्चारण में निहित हैजो अपन-अपने स्थान से भेद भी दर्शाता है। वैदिक ध्वनि समूह में 52 ध्वनियां हैं। स्वर 13 जिनमें मूल 9 और 4 संयुक्त ,फिर 39 स्पर्श व्यंजन हैं।
 
मानव को ज्ञान कोष की वृद्धि के साथ ध्वनियां भी बढ़ानी पडी़ ताकि शब्द कोष बढ़ । इसलिय संस्कृत के फैलाव में ध्वनियों का विस्तार करना पड़ा लेकिन मूल ध्वनियां कहीं ने कहीं तो थी हीं और व संस्कृत के लिय छन्दस् से प्राप्त हुई और इसी छन्दस् सपंाली ने भी ली परन्तुवह उनका विस्तार नहीं कर पाई। फिर भी वह अपना ज्ञान 10+3344 ध्वनियों से निकाल लेती थीं। क्योंकि इसमें सहज लोच था। इसी प्रकार बुन्देली तो 10+2737 से ही अपना कार्य चला लेती थी। क्योंकि इसमें समयानुकूल शब्दावली प्राप्त थी। याने इन्हीं 37 और 44 स्वर व्यन्जनों का विकास 52 ध्वनियां हैं इसस प्रमाणित होता है कि 37 ध्वनियों वाली बुन्देली बोली या भाषा सबस पुरानी हैं और वह अपना अस्तित्व अभी तक शान से निभाय चली जा रही है। यहाँ यह भी कह देना जरूरी है कि प्रत्यक संस्कृत अक्षर की ध्वनियाँ 2835 प्रकार की हैं और इस महती छलनी से छानकर बुन्देली की ध्वनि प्रकार भी निकालना होगा।

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सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है, किंतु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। हिंदी भाषा एवं अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वतंत्रता-संग्राम के चैतन्य का शंखनाद घर-घर तक पहुँचाया |
 स्वदेश प्रेम और स्वदेशी भाव की मानसिकता को सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम दिया, नवयुग के नवजागरण को राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय स्वशासन के साथ अंतरंग और अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया। 
भाषाओं की भूमिका
 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे भाषाएँ भारतीय स्वाधीनता के अभियान और आंदोलन को व्यापक जनाधार देते हुए लोकतंत्र की इस आधारभूत अवधारणा को संपुष्ट करतीं रहीं कि जब आज़ादी आएगी तो लोक-व्यवहार और राजकाज में भारतीय भाषाओं का प्रयोग होगा।
 
एक भाषाः प्रशासन की भाषा
 
आज़ादी आई और हमने संविधान बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।
14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। वे शब्द आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। उन्होंने तब कहा था, “आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।” उन्होंने कहा, “इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा।” उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा, “यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्योंकि वह एक भाषा थी।
 
अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।”
 
संघ की भाषा हिंदी
 
संविधान-सभा की भाषा-विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा-विषयक समझौते की बातचीत में मेरे पितृतुल्य एवं कानून के क्षेत्र में मेरे गुरु डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं श्री गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह सहमति हुई कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, किंतु देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी गरमा-गरम बहस हुई। अंत में आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के प्रश्न पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में प्रस्ताव रखा, किंतु देवनागरी के पक्ष में ही अधिकांश सदस्यों ने अपनी राय दी।
 
हिंदी का अपहरण
 
आशंकाओं का खांडव-वन तब दिखाई देने लगा, जब पंद्रह वर्ष की कालावधि के बाद भी अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग की बात सामने आई। वे आशंकाएँ सच साबित हुईं। पंद्रह वर्ष 1965 में समाप्त होने वाले थे। उससे पूर्व ही संसद में उस अवधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ। तब मैं लोकसभा का निर्दलीय सदस्य था। स्व. लालबहादुर शास्त्री, पंडित नेहरू की मंत्रीपरिषद के वरिष्ठ सदस्य थे और उन्हीं को यह कठिन काम सौंपा गया। कुछ सदस्यों ने कार्यवाही के बहिष्कार के लिए सदन-त्याग किया। तब मैंने कहा कि मुझे तो सदन में प्रवेश के लिए और अपनी बात कहने के लिए चुना गया है, सदन के बहिष्कार और सदन-त्याग के लिए नहीं। सदन में मैंने अकेले ही प्रत्येक अनुच्छेद एवं उपबंध का विरोध किया। बाद में श्रद्धेय शास्त्री जी ने बड़ी आत्मीयता के साथ संसद की दीर्घा में खड़े-खड़े कहा, “आपकी बात मैं समझता हूँ, सहमत भी हूँ, किंतु लाचारी है, आप इस लाचारी को भी तो समझिए।” अब संविधानिक स्थिति यह है कि नाम के वास्ते तो संघ की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, जबकि वास्तव में अंग्रेज़ी ही राजभाषा है और हिंदी केवल एक सह भाषा। लगता है कि संविधान में इन प्रावधानों का प्रारूप बनाते समय कुछ संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में यह बात पहले से थी। हुआ यह कि राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति ने मिलकर हिंदी की नियति का अपहरण कर लिया।
 
संसद में हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं
 
संविधान सभा में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने अपने भाषण में यह स्पष्ट ही कह दिया था कि हमें अंग्रेज़ी भाषा को कई वर्षों तक रखना पड़ेगा और लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में भी सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगी एवं अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगे। इस लंबे होते जा रहे समय में मुझे एक अविचल स्थायी भाव की आहट सुनाई देती है। मुझे नहीं लगता कि आनेवाले पच्चीस वर्षों में उच्चतम न्यायालय या अहिंदी भाषी प्रदेशों के उच्च न्यायालय हिंदी में अपनी कार्यवाही करने को तैयार होंगे। तब तक हिंदी के प्रयोग की संभावना और भी अधिक धूमिल हो जाएगी। यह अवश्य है कि हिंदीभाषी प्रदेशों में, न्यायालयों में हिंदी धीरे-धीरे बढ़ रही है, किंतु जजों के स्थानांतरण की नीति हिंदी के प्रयोग को अवश्यमेव अवरुद्ध करेगी। उच्च न्यायालयों के अंतर्गत दूसरे न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग काफ़ी बढ़ा है, किंतु उनको भी अधिनियमों एवं उपनियमों के प्राधिकृत पाठ के लिए एवं नाज़िरों के लिए बहुधा अंग्रेज़ी भाषा की ही शरण लेनी पड़ती है। विधान मंडलों में प्रादेशिक भाषाएँ पूरी तरह चल पड़ी हैं। संसद में इधर हिंदी में भाषण देनेवाले सदस्यों की संख्या बढ़ी है, किंतु हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं। राष्ट्रीय राजनीति के प्रादेशीकरण के चलते अब हिंदी को फूँक-फूँककर कदम रखना होगा, किंतु हिंदी का संघर्ष प्रादेशिक भाषाओं से नहीं हैं, उसके रास्ते में अंग्रेज़ी के स्थापित वर्चस्व की बाधा है।
 
हिंदी का विकास संसद के माध्यम से
 
जब संविधान पारित हुआ तब यह आशा और प्रत्याशा जागरूक थी कि भारतीय भाषाओं का विस्तार होगा, राजभाषा हिंदी के प्रयोग में द्रुत गति से प्रगति होगी और संपर्क भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 क संविधान में अंतःस्थापित हुआ और यह निर्दिष्ट हुआ कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास किया जाए। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। प्रयोजन यह था कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग हो, संघ और राज्यों के बीच राजभाषा का प्रयोग बढ़े, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग को सीमित या समाप्त किया जाए। हिंदी भाषा के विकास के लिए यह विशेष निर्देश अनुच्छेद 351 में दिया गया कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और संवर्धित हो।
 
संकल्प ?
 
हिंदी के विषय में लगता है संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य अकाट्य, अदम्य और अद्वितीय है, किंतु सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे अंग्रेज़ी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर पीढ़ियों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में हैं? शिक्षा में, व्यापार और व्यवहार में, संसदीय, शासकीय और न्यायिक प्रक्रियाओं में हिंदी को और प्रादेशिक भाषाओं को पाँव रखने की जगह तो मिली, संख्या का आभास भी मिला, किंतु प्रभावी वर्चस्व नहीं मिल पाया। वोट माँगने के लिए, जन साधारण तक पहुँचने के लिए आज भी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है, किंतु हमारे अधिकारी वर्ग और हमारे नीति-निर्माताओं के चिंतन में अभी भारतीय भाषाओं के लिए, हिंदी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के समकक्ष कोई स्थान नहीं है। हमारी अंतर्राष्ट्रीयता राष्ट्रीय जड‍़ों रहित होती जा रही है। जनता-जनार्दन से जीवंत संपर्क का अभाव हमारी अस्मिता को निष्प्रभ और खोखला कर देगा, इसमें कोई संशय नहीं है।
 
विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बनता
 
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए यह रेखांकित किया था कि यद्यपि अंग्रेज़ी से हमारा बहुत हित साधन हुआ है और इसके द्वारा हमने बहुत कुछ सीखा है तथा उन्नति की है, “किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।” उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच को आधारभूत मानकर कहा कि विदेशी भाषा के वर्चस्व से नागरिकों में दो श्रेणियाँ स्थापित हो जाती हैं, “क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।” उन्होंने मर्मस्पर्शी शब्दों में महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए कहा, “भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।”
राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण हो गया
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिंदी भाषा और देवनागरी का राजभाषा के रूप में समर्थन किया और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने इस निर्णय को ऐतिहासिक बताते हुए संविधान सभा से अनुरोध किया कि वह “इस अवसर के अनुरूप निर्णय करे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दे।” उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है और इसे समझौते तथा सहमति से प्राप्त करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम हिंदी को मुख्यतः इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलनेवालों की संख्या से अधिक है – लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (1949 में)। उन्होंने अंतरिम काल में अंग्रेज़ी भाषा को स्वीकार करने के प्रस्ताव को भारत के लिए हितकर माना। उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर बल दिया और कहा कि अंग्रेज़ी को हमें “उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा।” साथ ही उन्होंने अंग्रेज़ी के आमूलचूल बहिष्कार का विरोध किया। उन्होंने कहा, “स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाए और अंग्रेज़ी को किस प्रकार त्यागा जाए।
यदि हमारी धारणा हो कि कुछ प्रयोजनों के लिए हमेशा अंग्रेज़ी ही प्रयोग में आए और उसी भाषा में शिक्षा दी जाए तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। उन्होंने भाषा परिषदों की स्थापना का सुझाव दिया ताकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का सुचारु और तुलनात्मक अध्ययन हो। सभी भाषाओं की चुनी हुई रचनाओं को देवनागरी में प्रकाशित किया जाए और वाणिज्यिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और कला संबंधी शब्दों को निरपेक्ष रूप से निश्चित किया जाए। किंतु महात्मा गांधी की दृष्टि और उनका कार्यक्रम, पं. नेहरू की सोच और डॉ. मुखर्जी के सुझाव क्यों नहीं क्रियान्वित हुए? क्यों राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण और शिथिल हो गया?
 
हिंदी विरोध राष्ट्र की प्रगति में बाधक
 
1949 से लेकर आज तक अर्द्धशताब्दी में हम राष्ट्रीय जीवन के यथार्थ में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए।
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी
स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी ने देश के भविष्य के लिए, देश की एकता और अस्मिता के लिए हिंदी को ही राष्ट्र की संपर्क भाषा माना। भारतेंदु ने सूत्ररूप में कहा, “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।”
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबंध में लिखा है, “जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।” जैसा कि मेरे गुरु कुलपति कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था, “हिंदी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।” नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने यह घोषणा की थी कि “हिंदी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।”
महात्मा गांधी ने भागलपुर में महामना पंडित मनमोहन मालवीय का हिंदी भाषण सुनकर अनुपम काव्यात्मक शब्दों में कहा था, “पंडित जी का अंग्रेज़ी भाषण चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जाता है, किंतु उनका हिंदी भाषण इस तरह चमका है – जैसे मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।” हमारे प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का प्रत्येक भाषण भी इसी प्रकार सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता हुआ गंगा के प्रवाह की तरह लगता है। फिर क्यों हिंदी का प्रवाह रुका हुआ है?
 
मंज़िल दूर है
 
श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जिन्होंने राजभाषा के रूप में एक समय हिंदी का विरोध किया था, ने स्वयं 1956-57 में यह माना कि हिंदी भारत के बहुमत की भाषा है, राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है और भविष्य में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा होना निश्चित है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सभी भागों में सारी शिक्षा का एक उद्देश्य हिंदी का पूर्ण ज्ञान भी होना चाहिए और यह आशा प्रकट की कि संचार-व्यवस्था और वाणिज्य की प्रगति निश्चय ही यह कार्य संपन्न करेगी। स्व. गंगाशरण सिंह, कविवर रामधारी सिंह दिनकर, प्रकाशवीर शास्त्री और शंकरदयाल सिंह का योगदान आज याद आता है, किंतु हमारी यात्रा अभी अधूरी है, मंज़िल बहुत दूर और दु:साध्य है, पर हमें हिंदी के लिए की गई प्रतिज्ञाओं का पाथेय लेकर चलते रहना है।
 
हिंदी का तुलसीदल कहाँ है?
 
इस वर्ष लंदन में छठा विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। ब्रिटेन में कुछ ही वर्षों में मैंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई संस्थाएँ बनाईं, उन्हें प्रोत्साहन दिया और भारतवंशी लोगों में हिंदी के प्रति एक नई ललक, एक नया उत्साह, एक समर्पित निष्ठा पाई, किंतु विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी का वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय मंच है, जिसका उद्गम है भारत। अगर विश्व हिंदी सम्मेलन हमें यह पूछे कि भारत में हिंदी का आंदोलन-अभियान क्यों शिथिल पड़ गया है, क्यों भारत अपने संविधान का संकल्प और सपना अब तक साकार नहीं कर पाया, तो हम क्या उत्तर देंगे? जब तक भारत में हिंदी नहीं होगी, विश्व में हिंदी कैसे हो सकती है? जब तक हिंदी भाषा राष्ट्रीय संपर्क की भाषा नहीं बनती, जब तक हिंदी शिक्षा का माध्यम एवं शोध और विज्ञान की भाषा नहीं बनती और जब तक हिंदी शासन, प्रशासन, विधि नियम और न्यायालयों की भाषा नहीं बनती, भारत के आँगन में नवान्न का उत्सव कैसे होगा, हिंदी का तुलसीदल कैसे पल्लवित होगा?
 
मैं हिंदी की तूती हूँ
 
मुझे याद आता है सदियों पुराना अमीर खुसरो का फ़ारसी में यह कथन कि “मैं हिंदी की तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।” कब आएगा वह स्वर्ण विहान जब अमीर खुसरो के शब्दों में हिंदी की तूती बजेगी, बोलेगी और भारतीय भाषाएँ भारत माता के गले में एक वरेण्य, मनोरम अलंकार के रूप में सुसज्जित और शोभायमान होंगी। यह उपलब्धि राज्यशक्ति और लोकशक्ति के समवेत, संयुक्त और समर्पित प्रयत्नों से ही संभव है।
भारत के पश्चिम मध्यप्रदेश में विन्ध्य की तलहटी में जो पठार है उसे कम से कम दो हज़ार वर्षों से मालव (मालवा) कहा जा रहा है।
यहॉं के लोग भाषा और पोषाक से कहीं भी पहचान में आते रहे। मौसम की यहॉं सदा कृपा रही है।
इसीलिए सदा सुकाल के सुरक्षित क्षेत्र के रूप में इसकी सर्वत्र मान्यता रही है।
इस मालवा की बोली मालवी कहलाती है। वह पन्द्रह ज़िलों के प्रायः डेढ़ करोड़ लोगों की भाषा है।
 
मालवा क्षेत्र की सदा से राजनीतिक पहचान रही है।
भौगोलिक समशीतोष्णता का आकर्षण रहा है।
धार्मिक उदारता, सामाजिक समभाव, आर्थिक निश्चिन्तता, कलात्मक समृद्धि से सम्पन्न विक्रमादित्य, भर्तृहरि, भोज जैसे महानायकों की यह भूमि रही है जहॉं कालिदास, वराहमिहिर जैसे दैदीप्यमान नक्षत्रों ने साधना की।
मालवा के वसुमित्र ने विदेशी ग्रीकों को, विक्रमादित्य ने शकों तथा प्रकाश धर्मा और यशोधर्मा ने हूणों को पराजित कर स्वतंत्रता संग्राम की परंपरा पुरातनकाल से ही स्थापित कर दी थी।
मालवा का अपना सर्वज्ञात विक्रम संवत् भी है।
यहॉं भीमबेटका जैसे विश्वविख्यात पुरातत्व के स्थान हैं।
उज्जयिनी, विदिशा, महेश्वर, धार, मन्दसौर जैसे यहॉं पारम्परिक सांस्कृतिक केन्द्र हैं जहॉं निरन्तर जीवन संस्कार पाता रहा।
यहॉं की बोली मालवी की चिरकाल से समृद्धि होती रही जो अब क्रमशः उजागर होती जा रही है।
मालवी का लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। लोक नाट्य माच, गीत, कथा वार्ताएँ, पहेलियॉं, कहावतें आदि मालवी की अपनी शक्ति है।
इसकी शब्द सम्पदा अत्यंत समृद्ध है।
इसकी उच्चारण पद्धति नाट्शास्त्र युग से आज तक वैसी ही है।
 
तुलनात्मक अध्ययन द्वारा मालवी बोली तथा संस्कृति की शक्ति तथा व्यापकता को अभी पूरी तरह प्रकट करने के लिए और प्रयासों की अपेक्षा है।
नई हवा में क्षरण होती मालवी लोक संस्कृति की विभिन्न धाराओं की सुरक्षा के लिए त्वरित उपाय करने होंगे।
इस सबके लिए साहित्य-संस्कृति के समर्पित मर्मज्ञ साधकों के साथ ही राजनीतिक-प्रशासनिक समर्थ सम्बल की भी अत्यंत आवश्यकता है।
अवधी भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है, जो असल में हिन्दी की एक बोली है । तुलसीदास कृत रामचरितमानस एवं मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत सहित कई प्रमुख ग्रंथ इसी बोली की देन है। इसका केन्द्र फैजाबाद (उ0प्र0) है।फैजाबाद – लखनऊ से 120 कि0मी0 की दूरी पर पूरब में है । फ़ैज़ाबाद भारतवर्ष के उत्तरी राज्य उत्तर प्रदेश का एक नगर है। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, पं महावीर प्रसाद द्विवेदी,रामचंद्र शुक्‍ल , राममनोहर लोहिया,कुंवर नारायण की यह जन्मभूमि है ।यहीं डां0 राम प्रकाश द्विवेदी का भी जन्‍म (खन्डासा के जंगलॉ मॅ) हुआ था। वे प्रसारण पत्रकारिता के जाने-माने शिक्षक हैं।ओर तुलसी की जीवन दृष्टि से गहरे प्रभावित भी। तुलसीदास कृत रामचरितमानस की मुख्य संवेदना भक्ति है।
 
तुलसी रचित ग्रंथों में अवधी भाषा का ही प्रभुत्व है जो गोण्डा, बहराइच या घाघरा के उत्तर में बोली जाती है । अवधी भाषा का क्षेत्र बहुत बड़ा है किन्तु भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली अवधी में अंतर है । सीतापुर, लखीमपुर, लखनउ की अवधी, रायबरेली, उन्नाव, प्रतापगढ, सुल्तानपुर की अवधी, बांदा, हमीरपुर, इलाहाबाद, फतेहपुर की अवधी बोलियों में बड़ा अन्तर है । बांदा, हमीरपुर, इलाहाबाद, फतेहपुर की अवधी बोलियों में बड़ा अन्तर है । बांदा, हमीरपुर, इलाहाबाद, फतेहपुर की अवधी में बुंदेलखंडी भाषा के अनेकानेक शब्द होते हैं । तुलसीदास के ग्रन्थों में बुंदेलखंडी भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है । डा. भगवती सिंह ने अपने शोध ग्रन्थ में लिखा है कि तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में उन शब्दों का प्रयोग किया है जो मएलगिन बृजम के उत्तर अवधी भाषा में बोले जाते हैं । सारा रामचरित मानस तो ऐसी ही भाषा के शब्दों से भरा पड़ा है । मानस की हर चौपाई, ई तथा उ से अन्त होती है ।
 
जायसी का पद्मावत भी दोहा, चौपाईयों में अवधी भाषा में है परन्तु इसमें चौपाईयों का अन्त सीधे शब्दों से हुआ है । ऐसी अवधी भाषा, रायबरेली, उन्नाव, प्रतापगढ़ आदि जनपदों में बोली जाती है । लेखक या कवि पर उसकी आंचलिक भाषा का प्रभाव बना रहता है अत:वह जाने अनजाने अपनी आंचलिक भाषा के शब्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में कर लेता है । तुलसीदास भी इससे बचे नहीं रह सके और उन्होंने अपने ग्रन्थों में गोण्डा, बहराइच और घाघरा के उत्तर में बोली जाने वाली अवधी शब्दों का प्रयोग किया है । यदि तुलसीदास इस क्षेत्र में न होते तो वे इस क्षेत्र में बोली जाने वाली अवधी के इतने सटीक शब्दों का प्रयोग न कर पाते । लेखक कवि अथवा रचनाकर पर अपने परिवेश का प्रभाव पड़ना भी सर्वमान्य है । अस्तु तुलसीदास पर बांदा की बुंदेलखंडी अथवा एटा की बृजभाषा का प्रभाव नहीं पड़ा । उन पर प्रभावी है गोण्डा, बहराइच अथवा घाघरा के उत्तर की अवधी भाषा ।
 
घाघरा के उत्तर गोंडा, बहराइच में बोली जाने वाली अवधी की मुख्य पहिचान यह है कि कभी कोई शब्द सीधा नहीं बोला जाता है । जैसे खाना को खनवा, पानी को पनिया, गधे को गधोउ, घोड़े को घोड़उ घी को घिउ, भोजन को जेउना, सामूहिक भोजन को जयौनार, खाने के बाद मुंह धोने को अचवाना, लेटने को पौड़ना, सोने को सुतना, भाई को भयल, बहन को बहिनी, माँ को महतारी, बॉके जवान को छयल, लकड़ी के पाटे को पिढ़ई, बेलन को बिलना, ननिहाल को ननियाउर, निधड़क को निधरक, कांवारि, लहकौरि कलेवा आदि अनेक शब्द है जो तुलसी ग्रन्थों में बाहुल्य के साथ है । मखटानाम शब्द का प्रयोग प्राय: जूझना के अर्थ में किया जाता है लेकिन गोण्डा बहराइच में मखटानाम बहुत दिन तक रहने के अर्थ में बोला जाता है । तुलसीदास ने इस शब्द का प्रयोग गोंडा की भाषा में ममसहज एकाकिन्ह के भवन कबहूँ कि नारि खटाहिमम किया है ।
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भाषागत संबंध दो प्रकार के हो सकते हैं : क्षेत्रीय या भौगोलिक संबंध तथा ऐतिहासिक संबंध। प्रथम कोटि के संबंधों की पीठिका में ऐतिहासिक संबंध भी प्रायः रहते हैं। पर, इस स्थिति में क्षेत्रीय संबंधों को, वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमुख स्थान मिलना चाहिए।
 
१.क्षेत्रीय भाषा संबंध पर आधारित
 
इस शैली खंड में वह भू- भाग आता है, जिसकी बोलियों में आकृति मूलक या संरचनात्मक साम्य हो। कुछ ही ऐसी स्थानीय विशिष्टताएं इस क्षेत्र में मिलती हैं, जिनके आधार पर बोली-भौगोलिक खंड काटे जा सकते हैं। इन बोली भौगोलिक खंडों को जोड़ते हुए एक शैली-खंड बन जाता है। इस दृष्टि से बुंदेली, ग्वालियरी, कन्नौजी और पूर्वी राजस्थानी के बोली खंडों पर ब्रजभाषा का जो शैली खंड उभरता है, वह केंद्रीय स्थिति प्राप्त करता है। इस शैली खंड की विशेषता यह होती है कि विकसित शैली किसी विशेष-संदर्भ या वस्तु-विन्यास से बंध नहीं जाती। उसका प्रयोग एक से अधिक संदर्भों में हो सकता है। प्रशस्ति, ओज, श्रृंगार और भक्ति – सभी संदर्भों में यहां ब्रजभाषा शैली का प्रयोग होता रहा। संदर्भ की संरचना के अनुसार शैली-संगठन भी शिथिल का तनावपूर्ण होता रह सकता है।
 
२. ऐतिहासिक भाषा संबंध पर आधारित
 
दूसरा स्थान उस शैली खंड है, जिसके क्षेत्रीय भाषा- रुपों में ऐतिहासिक भाषा संबंध एवं तज्जन्य संरचनात्मक साम्य हो। पश्चिमी राजस्थानी, मालवी एवं गुजराती भाषा- खंडों को जोड़ते हुए, जो ब्रजभाषा- शैली क्षेत्र बनता है, वह इसी कोटि में आता है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिक परंपरा पश्चिमी या मध्यदेशी अपभ्रंश की ही परंपरा है। आगे इसी क्षेत्र में अवहट्ठ शैली का प्रादुर्भाव हुआ। ऐतिहासिक भाषा- संबंध को सांस्कृतिक संबंध भी पुष्ट कर रहे हैं। ब्रज और गुजरात का संबंध सांस्कृतिक भी है और वैष्णव संदर्भीय भी। राजस्थान और मालवा के साथ भी ये ही संबंध सूत्र हैं। इन सब संबंध सूत्रों की झंकृति साहित्य और लोक- साहित्य दोनों ही साक्ष्यों में उपलब्ध है। इस क्षेत्र में शैली कुछ- कुछ संदर्भ रुढ़ होने लगती है।
 
३. भौगोलिक समीपता और वैष्णव सूत्र पर आधारित
 
सिंध और पंजाब का ब्रजभाषा शैली क्षेत्र इसी प्रकार का उपखंड है। सिंध की उपलब्ध सामग्री वैष्णव संदर्भीय ही है। भौगोलिक समीपता से वह पुष्ट है। पंजाब में ब्रजभाषा शैलीग्रहीत है। पर आवश्यक रुप से वैष्णव संबंध सूत्र नहीं है। घनानंद आदि वैष्णवों ने पंजाबी मिश्रित ब्रजी या शुद्ध पंजाबी में वैष्णव- वस्तु को भी उतारा है। सिंधी और पंजाबी की प्रकृति ब्रजी के निकट नहीं है। सिंधी ब्रजी के पंजाबी की अपेक्षा निकटतर है। दोनों में उकार- प्रवृति एक सीमा तक समान है। फिर भी, ब्रजभाषा शैली का एक उपखंड इन क्षेत्रों को मिलाकर स्थापित हुआ। धर्माश्रय और राज्याश्रय भी इसको मिला। आगे परंपरा भी चली।
 
४. पूर्वशैली और वैष्णव सूत्रों पर आधारित
 
बिहार और बंगाल के क्षेत्र में अवहट्ठ शैली बहुत पहले ही पहुँच चुकी थी। पश्चिमी क्षेत्रों का इन क्षेत्रों से शैली तात्त्विक संबंध स्थापित हो गया था। वैष्णव पुनर्जागरण के युग में यह सूत्र नवीन संबंधों की पृष्ठभूमि बनाने लगा। इस युग में ब्रजभाषा ने मैथिली और बंगाली रुपों के साथ संबद्ध होकर ब्रजबुलि ने शैली को जन्म दिया। इस उपखंड में पीछे आसाम और उड़ीसा भी सम्मिलित हो गए। ब्रज और पूर्वी अंचल के इस खंड के बीच वैष्णव संबंध सूत्र अत्यंत दृढ़ हैं। अनेक बंगाली आचार्यों और भक्तों के लिए ब्रज साधनाभूमि रही है। अभी भी बंगाल और मणिपुर के अनेक साधक आजीवन ब्रज- निवास का संकल्प लेकर आते हैं। कृष्ण और राधा के प्रतीक इस संबंध को कभी शिथिल नहीं होने देंगे। क्षेत्रीय वितरण की दृष्टि से यह शैली- खंड चाहे विरल हो, पर एक विशिष्ट संदर्भ में सघनता बनी हुई है।
 
५. शुद्ध वैष्णव सूत्रों पर आधारित
 
महाराष्ट्र और शौरसेन क्षेत्र के बीच प्राकृत युग में संभवतः कोई शैली तात्विक संबंध भी रहा हो, पर आधुनिक खोजों ने इस संबंध को अस्वीकृत कर दिया है। महाराष्ट्र की उपलब्ध सामग्री में सधुक्कड़ी शैली भी मिलती है और ब्रजभाषा शैली भी। ब्रजभाषा शैली से स्थानीय भाषा भी कहीं- कहीं प्रभावित मिलती है और शुद्ध शैली का प्रयोग भी मिलता है। परवर्ती युग में राज दरबार ने भी ब्रजभाषा कवियों को आश्रय दिया। इस प्रकार भक्ति से इतर संदर्भ में भी इस क्षेत्र में ब्रजभाषा शैली का प्रयोग हुआ। यह ब्रजभाषा शैली का विरल उपखंड है।
 
६. वैष्णव सूत्र और संगीत शैली पर आधारित
 
दक्षिण में ब्रज की संगीत शैली के उदाहरण के रुप में पद मिलते हैं। उनमें कृष्ण- वृत्त भी है, जैसे संगीत के अनेक संप्रदाय भारत में बन रहे थे, उसी तरह ग्वालियर क्षेत्र में ध्रुपद जैसी विशिष्ट संगीत शैलियाँ पनप रहीं थीं। इन शैलियों की स्वीकृति का ही प्रमाण दक्षिण की सामग्री है। पदों का संकलन भी प्रायः संगीत- संग्रहों में है। यह ब्रजभाषा शैली का अत्यंत विरल उपखंड है।
 
यह स्पष्ट है कि ब्रजभाषा की सीमाओं से ब्रजभाषा शैली की सीमाओं का विस्तार बहुत अधिक है। ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र विस्तार के कारण मुख्यतः ऐतिहासिक हैं। साथ ही कृष्णाश्रित काव्यवस्तु की अभिव्यक्ति की आवश्यकता भी विस्तृति का कारण है। वस्तु की व्यापकता और लोकप्रियता में भी शैली- विस्तार के कारण निहित रहते हैं। एक विशेष वस्तु के साथ संबद्ध होकर जब भाषा- शैली काव्य और संगीत, दोनों का माध्यम बनती है, तब शैली- विस्तार की संभावनाएँ और अधिक बढ़ जाती है।
 
ब्रजभाषा
 
सजन सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।
जासों ब्रजभाषा – लता , हरी – भरी लहराय।।
 
भुवन- विदित यह जदपि चारु भारत भुवि पावन।
पै रसपूर्न कमंडल ब्रज- मंडल मनभावन।।
परम-पुन्यमय प्रकृति-छटा जहं बिधि बिथुराई।
जग सुर- मुनि- नर मंजु जासु जानत सुघराई।।
जिहि प्रभाव-बस नित-नूतन जनधर सोभा धरि।
सफल काम अभिराम सघन धनस्याम आपु हरि।
श्रीपति- पद- पंकज-रज परसत जो पुनीत अति।
आय जहाँ आनंदकरनि अनुभव सहृदय मति।।
जुगुल चरन-अरविंद-ध्यान-मकरंद-पान- हित।
मुनि-मन मुदित मलिंद निरंतर बिरमत जहं नित।।
तहं सुचि सरल सुभाव रुचिर गुनगन के रासी।
भोरे- भोरे बसत नेह बिकसित ब्रजवासी।।
जिहि आस्त्रय लहि कवि-मल-कर तुलसी- सौरव जसु।
मंजु मधुर मृदु सरस सुगम सुचि हरिजन सरबसु।।
केसव अरु मतिराम, बिहारी, देव अनूपम।
हरिश्चंद से जासु कूल कुसुमित रसाल द्रुम।।
“अष्टछाप’ अनुपम कदंब अघ- ओक- निकंदन।
मुकुलित प्रेमाकुलित सुखद सुरभित जग बंदन।।
तुरत सकल भय हरनि आर्य- जागृति जय- सानी।
जन- मन निजबस- करिनि लसित पिक भूषन बानी।।
विविध रंग- रंजित मन- रंजन सुखमा आकर।
सुचि सुगंध के सदन खिले अगनित पदमाकर।।
जिन पराग सौं चौकि भ्रमत उत्सुकता- प्रेरे।
रहसि- रहसि रसखान रसिक अलि गुंज घनेरे।।
बरन- बरन में मोहन की प्रतिमूर्ति बिराजति।
अच्छर आभा जासु अलौकिक अद्भुत भ्राजति।।
भक्ति आंदोलन एक देशव्यापी आंदोलन था। शैली की दृष्टि से लोक भाषा- शैली का उन्नयन इस आंदोलन की सबसे बड़ी देन है। शास्रीय शैली का नियमन और अनुशासन शिथिल हो जाता है। वस्तुगत उदात्तता प्रमुख हो जाती है। आरंभ में निर्गुण विषय- वस्तु गृहीत होती है। परिणामतः विषय- वस्तु से संबद्ध भौगोलिक स्थानीयता का उत्कर्ष नहीं होता और न किसी क्षेत्रीय भाषा का ही विषय- वस्तु से संबंध होता है। केवल व्यावहारिक सौंदर्य और सुविधा की दृष्टि से एक मिश्रित सधुक्कड़ी शैली जन्म लेती है और एक व्यापक शैली क्षेत्र बनने लगता है। नितांत वैयक्तिक क्षणों में संतों की उन्मुक्त और तरल चेतना स्थानीय भाषा- रुपों या भावात्मक संदर्भों में रुढ़शैली को ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार सधुक्कड़ी के साथ अन्य शैलियों का सहअस्तित्व हो जाता है।
 
सगुण वस्तुक्रम में भौगोलिक स्थानीयता आलंबन के भावपक्ष का अंग बन जाती है। अयोध्या, मथुरा, वृंदावन के भावात्मक और दिव्य संबंध प्रकट होने लगते हैं। स्थानीय भाषाओं के प्रति भी ऐसी ही एक भावुकता कसमसाने लगती है। स्थानीय भाषा- रुपों पर आधारित शैली वस्तु की यात्रा के साथ चलती है और अपने स्वतंत्र शैली- द्वीप या उपनिवेश बनाने लगती है। जब रामचरित्र की मर्यादाएँ, अमर्यादित दिव्य श्रृंगार- माधुर्य में निमज्जित हो जाती हैं, निर्गुण वाणी से निर्गत रहस्यमूलक श्रृंगारोक्तियाँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने लगती है और राज्याश्रित श्रृंगार में राधाकृष्ण के प्रतीक रुढ़ हो जाते हैं, तब आरंभिक स्थितियों में माधुर्य- श्रृंगार के लिए रुढ़ ब्रजभाषा शैली, अन्य विषय- वस्तु द्वीपों में भी प्रविष्ट होने लगती है, अन्य भाषा- द्वीपों में भी विस्तार करने लगती है। ब्रजी की वस्तु- संरचना भी अन्य वस्तु- क्षेत्रों पर अध्यारोपित होने लगती है और ब्रजभाषा शैली अन्य स्थानीय भाषाओं से मैत्री शैली क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करती है।
 
१. सधुक्कड़ी
 
संत- साहित्य सधुक्कड़ी शैली में लिखा गया है। इस शैली का भाषागत आधार परंपरागत काव्य- भाषा या ब्रजी का नहीं है। खड़ी बोली और राजस्थानी की मिश्रित संरचना पर इस शैली की प्रतिष्ठा हुई। सिद्धों की भांति संत- साहित्य में भी दुहरी शैली मिलती है। संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा है। यह द्विविध शैलीयोजना नामदेव से लेकर परवर्ती संतों तक चलती रही। सधुक्कड़ी शैली में राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी के रुपों का मिश्रण मिलता है। संत का व्यक्तित्व एक परंपरागत, परिनिष्ठित शैली को स्वीकार करके नहीं चला। खड़ी बोली का संबंध प्राचीन शैली भूगोल की दृष्टि से कुरु- जनपद से था। शौरसेनी पांचाली शैली क्षेत्र से इस क्षेत्र की भाषा संरचना कुछ भिन्न थी। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सहअस्तित्व भी मिलता है। इन दोनों की प्रकृति में आकारांत- औकारांत, उकारांत- अकारांत का भेद प्रमुख है। इन दोनों की प्रकृति में आकारांत कौरवी का साम्य पंजाबी से है। आधुनिक राजस्थानी और ब्रजी में दोनों ही प्रवृतियाँ मिलती हैं। कन्नौजी का क्षेत्र अपेक्षाकृत शुद्ध औकारांत शैली का क्षेत्र है। भौगोलिक दृष्टि से पंजाबी और राजस्थानी के कुछ रुपों को समेटे हुए, खड़ी बोली शैली दिल्ली के आसपास पनप रही थी। मुस्लिम काल में इस भौगोलिक क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व बढ़ा। यहाँ की भाषा- शैली को प्रचार और प्रोत्साहन मिला। इसी शैली को संतों ने अपनाया। इसमें ब्रजी के रुपों का नितांत अभाव नहीं था, पर मूल संरचना खड़ी बोली की ही मानी जानी चाहिए।
 
इस शैली को अपनाने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय मुस्लिम लेखकों को ही देना चाहिए। संक्रांतिकालीन संत भी मुस्लिम संस्कृति से प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप में प्रभावित थे। आरंभिक नाथ- योगी परंपरा में अवश्य ही शुद्ध सधुक्कड़ी की परंपरा मिलती है। गोरखबानी की भाषा- शैली की मूल संरचना खड़ी बोली की है तथा उसमें पूर्वी का मिश्रण है। राजस्थानी के प्रभावों का भी अभाव नहीं है। साथ ही गोरखनाथजी ने ब्रजभाषा के पद भी लिखे। ऐसा प्रतीत होता है कि पद- काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। नाथ और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे। सैद्धांतिक चर्चा या निर्गन- वाणी सधुक्कड़ी में होती थी। जिस प्रकार भक्ति- आंदोलन का सगुणवादी पक्ष ब्रजी की शैली को लेकर चल रहा था, उसी प्रकार निर्गुणवादी पक्ष सधुक्कड़ी को अपने प्रचार का माध्यम बना रहा था। संभवतः संत- व्यक्तित्व शिष्ट या परिनिष्ठित भाषा- शैली से परिचित भी कम था, पर कथ्य की प्रकृति इस नवीन शैली के ग्रहण का मुख्य कारण प्रतीत होती है। सामाजिक खंडन- मंडन, निर्गुण- चर्चा आदि कुछ ऐसे विषय थे, जिनको रुढ़ माध्यम वहन नहीं कर सकता था। इसलिए एक नवींन शैली- माध्यम की खोज हुई। यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि कुरुक्षेत्र में इस शैली की परंपरा पहले भी प्रचलित रही होगी। शौरसेनी- पांचाली क्षेत्र की परिनिष्ठित शैली के सामने इसका महत्त्व नहीं था। इस परंपरा का प्राचीन साहित्य भी नहीं मिलता। मध्यकाल के नाथ- संतों एवं मुस्लिम कवियों ने इस शैली का पुनरुत्थान किया।
 
२. गुजरात और ब्रजभाषा
 
ग्रियर्सन ने गुजराती को भारतीय आर्यभाषाओं की अंतवर्ती शाखा के अंतर्गत रखा है भौगोलिक दृष्टि से बहिर्वृत्त रहते हुए गुजराती का इस प्रकार का वर्गीकरण दोनों क्षेत्रों के सांस्कृतिक प्रभाव एवं संबंध की ही स्वीकृति है। पौराणिक साक्ष्य से भी मथुरा मंडल और गुजरात का संबंध सिद्ध होता है। कृष्ण समस्त यादवों के साथ द्वारावती में जाकर बस गए थे। आभीरों का गतिमार्ग भी मध्यदेश में गुजरात की ओर प्रतीत होता है। आभीर जैसी ही एक शक जाति थी। इस जाति का प्रसार भी गुजरात से मध्यप्रदेश तक था। ये वासुदेव के भक्त थे। संभवतः ये पंचवीरों — कृष्ण, संकर्षण, बलराम, सोम और अनिरुद्ध के उपासक थे। पीछे जैन धर्म का भी मथुरा एक केंद्र बन गया और गुजरात और ब्रज का संबंध बना रहा। जैन धर्म की भाषा- विधि भी शौरसेनी से प्रभावित थी। जैन आगमों और परवर्ती साहित्य कृष्ण वार्ता से अनुप्राणित है।
 
वैष्णव धर्म के उदय के समय भी ब्रज और गुजरात का संबंध घनिष्ठ बना रहा। वल्लभ संप्रदाय का यह सबसे प्रमुख प्रभाव- क्षेत्र रहा है और आज भी है। गुजरात की संस्कृति और ब्रज की संस्कृति में ही साम्य और घनिष्ठ संबंध नहीं रहा, उभय क्षेत्रीय भाषा और साहित्य भी एक- दूसरे के बहुत समीप आ गए। गुजरात की आरंभिक रचनाओं में शौरसेनी अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में स्फुट काव्य रचना भी की है। हेमचंद्र के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा को ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका माना जाना चाहिए। गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। ब्रह्मदेव की एक कृति में भी ब्रजभाषा का एक पद निकलता है। लक्ष्मीदास ने स्फुट पदों की रचना ब्रजभाषा में की। कृष्णदास ( रुक्मिणी विवाहनों ) का नाम भी इस सूची में महत्वपूर्ण है। नरसी मेहता की भाषा पर परंपरागत पश्चिमी अपभ्रंश का प्रभाव है, जो उसे ब्रजभाषा के समीप ले आती है। इन्होंने ब्रजभाषा में भी पदों की रचना की। अष्टछापी कवि कृष्णदास भी गुजरात के ही थे। इनके पश्चात तो गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परंपरा ही बन जाती है। जो बीसवीं शती तक चली आती है। गुजरात के राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि समादृत रहे। इस प्रकार ब्रजभाषा गुजराती कवियों के लिए निज- शैली ही बन गई थी।
 
३. मालवा
 
मालवा और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परंपरा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलती है। अनेक गीतों में सगरौ तौ ढूंढ़यौ मालुवो और सबु ढूंढ़ी गुजरात जैसी पंक्तियाँ आती हैं। गुजरात, मालवा और ब्रज के पारस्परिक संबंध की चेतना ब्रज के सामान्यजन को भी थी। मुंज का संबंध मालवा से था। मुंज और मृणालवती के प्रेम से संबद्ध दोहे मध्यदेशी में ही रचित है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये दोहे मध्यदेश या ब्रज में लोक- प्रचलित थे। मुंज के भतीजे भोजराज थे। उनके सरस्वती कंठाभरण में जो अपभ्रंश रचनाएँ संकलित हैं, उन पर भी ब्रज की भाषा- प्रकृति का प्रभाव है। कुछ पंक्तियाँ तो ब्रजभाषा के अत्यंत निकट हैं।
 
४. बुंदेलखंड
 
ब्रजभाषा के लिए “ग्वालियरी’ का प्रयोग भी हुआ है। जयकीर्ति ने “कृष्ण रुक्मिणी की बेल’ की टीका में “ग्वालेरी’ का प्रयोग भाषा के संबंध में एक प्राचीन प्रचलित दोहा उल्लिखित किया है ५ । ब्रज- देश की एक सीमा का एक छोर ग्वालियर माना गया है। ग्वालियरी भाषा और ब्रजभाषा इस दृष्टि से एक दूसरी के पर्याय हैं। लल्लूलाल ने ग्वालियर को सरस कहा है। संभवतः: ब्रज बुंदेली सम्मिलित क्षेत्र में ग्वालियरी का विकास हुआ था। प्राचीनकाल में ही, इस क्षेत्र ने बहुत से कवियों को जन्म दिया। हरिहरनिवास द्विवेदी ने ब्रजभाषा शैली का जन्म ग्वालियर में माना है। उनका मत इस प्रकार है — ११ वीं से १५ वीं तक जो हिंदी बुंदेलखंड में विकसित हुई वही १६ वीं, १७वीं, १८ वीं शताब्दी में कवियों द्वारा अपनाई गई।
 
यदि इस झगड़े को छोड़ दें कि ब्रजभाषा शैली का जन्म ग्वालियर में हुआ या मथुरा के आस- पास, तो आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ विस्तृत थीं। ग्वालियर और मथुरा दोनों की स्थिति इसी शैली क्षेत्र में थी। ग्वालियर सदा से ब्रजक्षेत्र में माना जाता रहा है। डा. ग्रियर्सन ने उत्तर- पश्चिमी ग्वालियर को ब्रजक्षेत्र में रखा है और यहाँ की भाषा परिनिष्ठित ब्रजी मानी है। यह शैली शौरसेनी परंपरा में आती है। इसमें संदेह नहीं कि ब्रजी और बुंदेली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुंदेलखंड का सांस्कृतिक संबंध भी सदा रहा है। ब्रजभाषा का एक नाम ग्वालियरी भी हो गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्वालियर- क्षेत्र ब्रजभाषा के संगीत शास्रीय प्रयोग का क्षेत्र था। मानसिंह तोमर द्वारा प्रवर्तित ध्रुपद की रचना संभवतः इसी क्षेत्र में हुई। मानकुतूहल में “सुदेश’ नाम आया है। इस पर टिप्पणी करते हुए हरिहरनिवास द्विवेदी ने लिखा है — सुदेस से मतलब है ग्वालियर से, जो आगरा का राज्य केंद्र है। ग्वालियर क्षेत्र का वैशिष्ट्य ब्रजभाषा की संगीत शैली को जन्म देने में है। वैसे केशव, बिहारी जैसे अनेक ब्रजभाषा कवियों को भी बुंदेलखंड ने जन्म दिया।
 
५. सिंध और पंजाब
 
सिंध का नाम आते ही तुलसीदास अथवा गोस्वामी लालजी का नाम स्मरण हो आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी विट्ठलनाथजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। अंततः गुसांईजी ने उसे अपना “लाल’ ही माना और गोस्वामी पद से भी विभूषित किया। इनको कार्य दिया गया, सिंध और पंजाब में वैष्णव धर्म का प्रचार था। सिंध- तट पर डेरागाजीखां को इन्होंने अपना साधना- स्थल बनाया। इसी केंद्र से वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरंभ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे। गोस्वामी लाल के पुत्रों ने भी ब्रजभाषा में काव्य रचना की इस गद्दी की शिष्य- परंपरा में ब्रज साहित्य के अन्य रचयिता भी मिलते हैं। गद्य की भी रचना हुई। टीकाएँ भी ब्रजभाषा में हुई। गुरु- प्रशस्ति की काव्य- रचना भी हुई। इस प्रकार लालजी के समकालीन लेखकों ने सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की। आगे भी यह परंपरा चलती रही।
पंजाब में ब्रजभाषा के प्रथम कवि ज्ञानरत्न के कर्ता सांईदास माने जाते हैं ६ । गुरु नानक ने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। गुरुगोविंद सिंह का ब्रजभाषा- कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में ब्रजभाषा को सम्मानपूर्ण आश्रय प्राप्त रहा७। राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे ८ । इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए भी कभी- कभी ब्रजभाषा को चुना ९ । इस प्रकार पंजाब जो खड़ी बोली, पंजाबी, हरियाणवी की मिश्रित शैली का क्षेत्र माना जा सकता है, ब्रजभाषा की शैली के विकास में योग देता रहा।
 
 
 
 
६. बंगाल : ब्रजबुलि
 
पहले संकेत किया जा चुका है कि बंगाल में ब्रजभाषा के कुछ कवि हुए। सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल था ही। बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई। इस पर मागधी का प्रभाव नहीं पड़ा। अवह जब एक साहित्यिक शैली के रुप में पनपी, तो इसका प्रयोग मैथिल कोकिल विद्यापति ने कीर्तिलता में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रण है। बंगाल के सहजिया- साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है। बंगाली के आंचलिक रुपों की झलक से अवहट्ठ झिलमिला रही है। बंगाल के वैष्णव कवियों को संत- सिद्धों की भाषा की परंपरा प्राप्त थी। “ब्रजबुली’ वैष्णव परिवेश में उदित एक विशिष्ट शैली ही है। यह भी बोलियों के मिश्रण पर आधारित है। मुस्लिम युग में वैष्णव परिव्राजकों के लिए मथुरा- वृंदावन सबसे बड़े तीर्थ बन गए। दक्षिण के आचार्य भी इधर आए और चैतन्य महाप्रभु भी। वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलि है। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था। गौण रुप से अन्य भाषाएँ भी योग दे रही थीं। विद्यापति के राधाकृष्ण प्रेम संबंधी गीतों ने बंगाल में वैष्णव- नवजागरण को रस- स्नात कर दिया।
 
बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैली को अपनाने लगे। इसी भाषा में गोविंददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी आसाम के शंकरदेव के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और उत्कल के संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी। विशेष रुप से रास- कीर्तन की यह भाषा थी। संकीर्तन प्रायः पदों में मिलता है। ब्रजबुली वास्तव में पद- शैली ही है १० । बंगाल में ब्रजबुजी के अनेक पदकर्ता हुए। विषयवस्तु की दृष्टि से राधाकृष्ण, राधा तथा चैतन्य- प्रशस्ति से ब्रजबुली पद- साहित्य संबद्ध है। कुछ पदों में कृष्ण, गोप, गोपी संदर्भ भी है। इस प्रकार ब्रजसंदर्भ, ब्रज शैली, पद- पद्धति जैसे एक होकर ब्रजबुलि शैली में ढ़ल गए हों।
आसाम में शंकरदेव ( १५०६- १६२५ ) ने भी ब्रजबुलि शैली को ही अपनाया। इनकी शिष्य- परंपरा में भी ब्रजबुलि साहित्य की रचना होती रही। इधर उड़ीसा में भी ब्रजबुलि साहित्य की रचना हुई। राय रामानंद का समय चैतन्य से भी पूर्व है।
 
७. महाराष्ट्र
 
ब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ता है। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओं में मिलते हैं। नामदेव की भाषा को डा० शिवप्रसाद सिंह ने गुरुग्रंथ साहब में संकलित पदों की भाषा को पूर्णतः ब्रज माना है। एक स्थान पर इनकी भाषा को मिश्रित भी कहा है। संत नामदेव की हिंदी पदावली के संपादकों का अभिमत इस प्रकार है- गुरुग्रंथ वाले पद ही नामदेव की हिंदी रचना का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। सैकड़ों की संख्या में अन्य पद भी प्राप्त हुए हैं जिनकी भाषा संयत और सुरक्षित भी है। इन सभी रचनाओं को देखकर यह कहा जा सकता है कि नामदेव की भाषा मूलतः ब्रज है और उस पर पंजाबी, राजस्थानी, रेखता और मराठी का प्रभाव है। इस प्रकार नामदेव के द्वारा लिखित सैकड़ों हिंदी पद प्राप्त होते हैं, जिनकी मूल संरचना ब्रजी की है और प्रभाव अन्य भाषाओं का भी है। नामदेव ने ही नहीं, महाराष्ट्र क्षेत्र के अन्य संतों ने भी हिंदी में पद रचे। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की भी हिंदी रचनाएं मिलती हैं। इनकी हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है। उपर्युक्त संतों की वाणी की मूल संरचना तो ब्रजी की ही प्रतीत होती है, किंतु सधुक्कड़ी की परंपरा भी यहां लोकप्रिय थी, जो खड़ी बोली या पंजाबी प्रभावों के लिए उत्तरदायी है। दखनी क्षेत्र के समीप होने के कारण भी रेखता या दखनी का प्रभाव माना जा सकता है। मराठी रुपों का मिश्रण स्थानीय प्रभाव का परिचायक है। भाव विह्मवल लक्षणों में ब्रज भाषा की शैली अपना ली जाती है।
 
मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा। शाहजी के दरबार में रहने वाले कवियों की सूचियों दी गई हैं। इन कवियों में महाराष्ट्र से बाहर के कवि भी थे। ब्रजी शैली के कवियों का भी यहाँ सम्मान था। शिवाजी के दरबार में भी यह परंपरा बनी रही। कवि भूषण तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही। जयराम पिंड्ये बारह भाषाओं के ज्ञाता थे। बारह भाषाओं में एक ब्रजभाषा भी होगी, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। जयराम और भूषण का परस्पर परिचय-संबंध भी रहा हो सकता है। इन्होंने हिंदी (ब्रजी) में भी शिवाजी की कथा लिखी, जो अब अप्राप्य है। जयराम रचित राधा माधव विलास चंपू में कुछ पद ब्रजभाषा के हैं। कुछ पद्य इस प्रकार हैं-
 
गायो उत्तर देस को द्वेै गुनि अति अभिराम।
नाम एक को लालमनि, दुसरो है घनशाम।
 
बात अचंभो एक यह जंत्र सजे की ठाट।
चित्रचना के दारि मह, चित्रचना के दारि।
इस पद्य में ब्रजभाषा शैली की ओकारंतता विद्यमान है। ब्रजभाषा शैली के दोहों का प्रचार तो बहुत व्यापक था। उसी शैली के ये दोहे हैं।
 
८. दक्षिण
 
दक्षिण में खड़ीबोली शैली का ही दखनी नाम से प्रसार हुआ। इसमें अनेक पुस्तकें लिखी गईं। बहमनी राज्य के उत्तराधिकारी साहित्यानुरागी थे। इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। तुलसीदास के समकालीन मुल्ला वजही ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। वैसे सबरस की भाषा हिंदी है। यह खड़ीबोली के समीप है। किंतु इतना अवश्य कहा जाना चाहिए कि ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में उसी प्रकार किया है, जिस प्रकार अब्दुर्रहमान ने अपनी प्रेमकथा में किया है। ऐसी रचनाएं भी हैं, जिनमें खड़ीबोली शैली के साथ ब्रजी-शैली का मिश्रण हुआ है। उदाहरण के लिए अफजल की कृति “बिकट कहानी-बारहमासा’ को लिया जा सकता है। उसकी भाषा के संबंध में डा० मसूद हुसैन खां ने लिखा है – “अफजल का संबंध पानीपत से था जो हरियाणी के प्रदेश में विद्यमान है।’ चूंकि ब्रज-भाषा इस समय तक साहित्यिक रुप से एक उच्च स्थान ग्रहण कर चुकी थी और अफजल को मथुरा के ब्रजभाषा के वातावरण का पुर्ण अनुभव था, इसलिए उसकी भाषा में उस प्रभाव का आना अनिवार्य था।
 
अफजल ने बिकट कहानी बारहमासी में साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया, इस कारण उसका ब्रजभाषा से प्रभावित होना अनिवार्य था। इसकी भाषा में ब्रजी की ल र प्रवृत्ति मिलती है। साथ ही दीर्घ स्वरों वाले ब्रजभाषा- प्रकृति के हाँसी (उहंसी), पाती (उपत्र) आदि शब्द मिलते हैं। तैं(उतू), तुमरी (उतुम्हारी), तुमन (उतुम) हौं (उमैं)। जैसे सर्वनाम रुप ब्रजभाषा के समान हैं। ब्रजभाषा के न बहुवचन प्रत्यय का भी प्रयोग मिलता है। पगन (उपगों), सूं (उसे), कूं (उको), कहा (उक्या), कौलौं (उकब तक), कहूं (उकहीं) अव्यय भी ब्रजभाषा प्रकृति के हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियानी बोली का प्रयोग मिलता है, एकाध पद्य रचना में ब्रज भाषा शैली का मिश्रण अवश्य है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं।
 
दक्षिण में अन्य क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के छुटपुट कवियों का अस्तित्व मिलता है। कल्याणी के चालुक्य नरेश भूलोक मल्ल सोमेश्वर के ग्रंथ मानसोल्लास में ब्रजभाषा की शैली का एक उदाहरण मिलता है। यह उदाहरण राग-रागिनियों से संबद्ध है। इससे प्रतीत होता है कि ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्ध था। संगीत की अनेक शाखाओं में से यह भी एक प्रसिद्ध और लोकप्रिय शाखा थी। केरल के महाराजा राम वर्मा (जन्म १८७०) स्वाति-तिरुनाल के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे। इनके पदों में सबसे अधिक संख्या कृष्ण संबंधी पदों की है। इससे प्रतीत होता है कि कृष्णवार्ता के साथ ब्रजभाषा शैली का घनिष्ठ संबंध हो गया था। साथ ही इन पदों का संदर्भ भी संगीत है।
 
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल। शैली खंडों का विस्तार आधारभूत भाषा के विविध संबंधों की ही भौगोलिक परिणति है। ये संबंध भाषागत, या सांस्कृतिक हो सकते हैं। भाषागत संबंधों के आधार पर निर्मित शैली खंड सघन कहे जाएंगे और अन्य सांस्कृतिक संबंधों के आधार पर बने उपखंड विरल। अन्य पारिभाषिक शब्दों के अभाव में हम प्रथम वर्ग में आने वाले शैली द्वीपों को खंड और द्वितीय वर्ग के द्वीपों को उपखंड कह सकते हैं।
ब्रज शब्द संस्कृत धातु ब्रज से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का बाड़ा) मार्ग और वृंद (झुण्ड) १ संस्कृत के वृज शब्द से ही हिन्दी का ब्रज शब्द बना है
 
=> वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है।
१ ॠगवेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रुप में वर्णित है।
२  यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है।
३ शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है।
४ अथर्ववेद में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है।
५ हरिवंश तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्त के रुप में प्रयुक्त हुआ है।
६ स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ व्थापित वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रम्ह का रुप कहा है। अतः यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है।
 
=> वेदों से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवतकार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक हैं। भागवत के आधार पर सूरदास की रचनाओं मे भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
 
=> मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्राचीन काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चारागाहों, गोष्ठों और सुन्दर गायों के लिये प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा नगर में हुआ था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें जन्म लेते ही यमुना पार की गोप-वस्ती में भेज दिया गया था, उनकी वाल्यावस्था एक बड़े गोपालक के घर में गोप, गोपी और गो-वृंद के साथ बीती थी। उस काल में उनके पालक नंदादि गोप गण अपनी सुरक्षा और गोचर-भूमि की सुविधा के लिये अपने गोकुल के साथ मथुरा निकटवर्ती विस्तृत वन-खण्डों में घूमा करते थे। श्रीकृष्ण के कारण उन गोप-गोपियों, गायों और गोचर-भूमियों का महत्व बड़ गया था।
 
=> पौराणिक काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक जैसे-जैसे कृष्णौ-पासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे श्रीकृष्ण के उक्त परिकरों तथा उनके लीला स्थलों के गौरव की भी वृद्धि होती गई। इस काल में यहां गो-पालन की प्रचुरता थी, जिसके कारण व्रजखण्डों की भी प्रचुरता हो गई थी। इसलिये श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से सम्वधित मथुरा के आस-पास का समस्त प्रदेश ही ब्रज अथवा ब्रजमण्डल कहा जाने लगा था।
 
=> सूरदास तथा अन्य व्रजभाषा के भक्त कवियों और वार्ताकारों ने भागवत पुराण के अनुकरण पर मथुरा के निकटवर्ती वन्य प्रदेश की गोप-बस्ती को ब्रज कहा है और उसे सर्वत्र ‘मथुरा’, ‘मधुपुरी’ या ‘मधुवन’ से प्रथक वतलाया है। आजकल मथुरा नगर सहित वह भू-भाग, जो श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी विविध लीलाओं से सम्बधित है, ब्रज कहलाता है। इस प्रकार ब्रज वर्तमान मथुरा मंडल और प्राचीन शूरसेंन प्रदेश का अपर नाम और उसका एक छोटा रुप है। इसमें मथुरा, वृन्दाबन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगाँव, वरसाना, डीग और कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी लीला-स्थल सम्मिलित हैं। उक्त ब्रज की सीमा को चौरासी कोस माना गया है।
 
=> इस प्रकार ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। वेदों और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग ‘गोष्ठ’-‘गो-स्थान’ जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां पौराणिक काल में ‘गोप-बस्ती’ जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी ही था।
 
=> भागवत मे ‘ब्रज’ क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है।  १६वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेशवायी होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तव उसका आकार ८४ कोस का माना जाने लगा था। उस समय मथुरा नगर ‘ब्रज’ में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य ब्रज-भाषा कवियों ने ‘ब्रज’ और मथुरा का पृथक् रुप में ही कथन किया है, जैसे पहिले अंकित किया जा चुका है।
 
=> कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान
 
काल में मथुरा नगर सहित मथुरा जिले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामबन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है।
 
=> उक्त समस्त भू-भाग रे प्राचीन नाम, मधुबन, शुरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरामंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है।
भाषा और शैली की दृष्टि से शौरसेनी या पश्चिमी अपभ्रंश का एक व्यापक क्षेत्र था। ब्रजभाषा को एक प्रकार से इसी व्यापक क्षेत्र की सीमाएँ विरासत में मिली थीं। ब्रजभाषा का शैली- रुप भाषा- क्षेत्र से कहीं अधिक विस्तृत सीमाओं का स्पर्श करता है। कुछ लेखकों ने ब्रजभाषा नाम से उसके क्षेत्र- विस्तार का कथन किया है। “वंश भास्कर’ के रचयिता सूरजमल ने ब्रजभाषा प्रदेश दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। “तुहफतुल हिंद’ के रचयिता मिर्जा खाँ ने ब्रजभाषा के क्षेत्र का उल्लेख इस प्रकार किया है “भाषा’ ब्रज तथा उसके पास- पड़ोस में बोली जाती है। ग्वालियर तथा चंदवार भी उसमें सम्मिलित हैं। गंगा- यमुना का दोआब भी ब्रजभाषा का क्षेत्र है। लल्लूजीलाल के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र “ब्रजभाषा वह भाषा है, जो ब्रज, जिला ग्वालियर, भरतपुर बटेश्वर, भदावर, अंतर्वेद तथा बुंदेलखंड में बोली जाती है। इसमें ( ब्रज ) शब्द मथुरा क्षेत्र का वाचक है।’ लल्लूजीलाल ने यह भी लिखा है कि ब्रज और ग्वालियर की ब्रजभाषा शुद्ध एवं परिनिष्ठित है।
 
ग्रियर्सन ने ब्रजभाषा- सीमाएँ इस प्रकार लिखी हैं। “मथुरा केंद्र है। दक्षिण में आगरे तक, भरतपुर, धौलपुर और करौली तक ब्रजभाषा बोली जाती है। ग्वालियर के पश्चिमी भागों तथा जयपुर के पूर्वी भाग तक भी यही प्रचलित है। उत्तर में इसकी सीमा गुड़गाँव के पूर्वी भाग तक पहुँचती है। उत्तर- पूर्व में इसकी सीमाएँ दोआब तक हैं। बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा तथा गंगापार के बदाँयू, बरेली तथा नैनीताल के तराई परगने भी इसी क्षेत्र में है। मध्यवर्ती दोआब की भाषा को अंतर्वेदी नाम दिया गया है। अंतर्वेदी क्षेत्र में आगरा, एटा, मैनपुरी, फर्रूखाबाद तथा इटावा जिले आते हैं, किंतु इटावा और फर्रूखाबाद की भाषा इनके अनुसार कन्नौजी हैं, शेष समस्त भाग ब्रजभाषी है।’
 
केलाग ने लिखा है कि राजपूताना की बोलियों के उत्तर- पूर्व, पूरे अपर दोआब तथा गंगा- यमुना की घाटियों में ब्रजभाषा बोली जाती है।
 
डा. धीरेंद्र वर्मा ने ग्रियर्सन द्वारा निर्दिष्ट कन्नौजी क्षेत्र को ब्रजी के क्षेत्र से अलग नहीं माना है। अपने सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने कानपुर तक, ब्रजभाषी क्षेत्र ही कहा है। उनके अनुसार उत्तर- प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलंदशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली के जिले — पंजाब और गुड़गावां जिले का पूर्वी भाग — राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर का पूर्वी भाग — मध्यभारत में ग्वालियर का पश्चिमी भाग ब्रजी के क्षेत्र में आते हैं। चूँकि ग्रियर्सन साहब का यह मत लेखक को मान्य नहीं कि कन्नौजी स्वतंत्र बोली है, इसलिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा और कानपुर के जिले भी ब्रजभाषा क्षेत्र में सम्मिलित कर लिए हैं। इस प्रकार बोली जाने वाली ब्रजभाषा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत ठहरता है। एक प्रकार से प्राचीन मध्यदेश का अधिकांश भाग इसमें सम्मिलित हो जाता है।
 
ब्रज शैली क्षेत्र
 
ब्रजभाषा काव्यभाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो गई। कई शताब्दियों तक इसमें काव्य- रचना होती रही। सामान्य ब्रजभाषा- क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके ब्रजभाषा- शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। इस बात का अनुमान रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदासजी ने किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्रजभाषा का परिचय ब्रज से बाहर रहने वाले कवियों से भी मिल सकता है। यह नहीं समझना चाहिए कि ब्रजभाषा मधुर- सुंदर है। इसके साथ संस्कृत और फारसी ही नहीं, अन्य भाषाओं का भी पुट रहता है। फिर भी ब्रजभाषा शैली का वैशिष्ट्य प्रकट रहता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि ब्रजभाषा शैली अनेक भाषाओं से समन्वित थी। वास्तव में १६ वीं शती के मध्य तक ब्रजभाषा की मिश्रित शैली सारे मध्यदेश की काव्य- भाषा बन गई थी।
 
ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र- विस्तार में भक्ति आंदोलन का भी हाथ रहा। कृष्ण- भक्ति की रचनाओं में एक प्रकार से यह शैली रुढ़ हो गई थी। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त- कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है — “ब्रज की वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। …बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।’
 
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा १ और भी पश्चिम में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
 
इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
 
ब्रजभाषा शैली के क्षेत्र विस्तार की दो स्थितियाँ रहीं। प्रथम स्थिति भाषा वैज्ञानिक इतिहास के क्रम से उत्पन्न हुई। जब पश्चिमी या मध्यदेशीय भाषा अनेक कारणों से अपनी भौगोलिक सीमाओं का उल्लंघन करने लगी, तब स्थानीय रुपों से समन्वित होकर, वह एक विशिष्ठ भाषा शैली का रुप ग्रहण करने लगी। जिन क्षेत्रों में यह कथ्य भाषा न होकर केवल साहित्य में प्रयुक्त कृत्रिम, मिश्रित और विशिष्ट रुप में ढ़ल गई और विशिष्ट अवसरों, संदर्भों या काव्य रुपों में रुढ़ हो गई, उन क्षेत्रों को शैली क्षेत्र माना जाएगा। शैली- क्षेत्र पूर्वयुगीन भाषा- विस्तार या शैली- विस्तार के सहारे बढ़ता है। पश्चिमी या मध्यदेशी अपभ्रंश के उत्तरकालीन रुपों की विस्तृति इसी प्रकार हुई।
 
दूसरी स्थिति तब उपस्थित हुई जब पूर्व- परंपरा की भाषा- शैली की क्षेत्रीय विस्तृति तो पृष्ठभूमि बनी और शैलीगत क्षेत्र- विस्तार के ऐतिहासिक ( भक्ति- आंदोलन ) और वस्तुगत (कृष्णवार्ता ) कारण भी उपस्थित हो गए।
 
शैलीगत क्षेत्र विस्तार की प्रथम स्थिति
इसमें अवहट्ट, औक्तिक और पिंगल शैलियाँ आती है।
 
अपह
 
अवह शब्द का अर्थ अपभ्रंश से भिन्न नहीं है। अद्दहमाण ( १२ वीं शती ) ने चार भाषाओं का प्रयोग किया है — अवहट्ठ, संस्कृत, प्राकृत और पैशाची। ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने छह भाषा और सात उपभाषाओं की सूची में “अवहट्ट’ का भी परिगणन किया है। विद्यापति ( १४०६ ई.) ने इस शब्द का प्रयोग जनप्रिय भाषा के रुप में किया है। चाहे अवह शब्द में स्वयं कोई ऐसा संकेत न हो, जिसके आधार पर हम इसे शौरसेनी का परवर्ती रुप मानें, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि यह अपभ्रंश के विकास की परवर्ती भाषा का वाचक शब्द है, और यह भी स्पष्ट है कि यह सार्वजनीन रुप था। प्राकृत पैंगलम के टीकाकार ने इसे “आद्य भाषा’ कहा है। यह उसी शैली का कथन है, जिसमें प्राकृत को कभी आदि भाषा कहा गया था। विद्यापति ने इसे देशी भाषा या लोग भाषा के समकक्ष रखा। कुछ कवि इसे “देशी’ ही कहते हैं। यह वस्तुतः परिनिष्ठित संस्कृतप्राकृतमय अपभ्रंश शैली के प्रति एक जनप्रिय शैली की प्रतिक्रिया ही थी। वस्तु और शैली दोनों ही देश्यतत्त्वों से अभिमंडित होने लगीं।
 
क्षेत्र की दृष्टि से, यह शैली अत्यंत व्यापक प्रतीत होती है। अब्दुलरहमान मुलतान के थे। इस क्षेत्र की यह प्रचलित भाषा नहीं, अपितु यहाँ की कवि- प्रयुक्त शैली ही अवह थी। संदेशरासक की शैली रुढ़ और कृत्रिम साहित्यिक शैली है। किंतु दोहों की भाषा तो एकदम ही नवीन और लोकभाषा की ओर अतीव उन्मुख दिखाई पड़ती है। डॉ. हरिवल्लभ भायाणी ने दोहों की भाषा हेमचंद्र के द्वारा उल्लिखित दोहों के समान या उससे भी अधिक अग्रसरीभूत भाषा- स्थिति से संबद्ध मानी है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि परिनिष्ठित शैली की संरचना को ग्रहण करके चलना चाहता है। जिसमें संस्कृत और प्राकृत के उपकरण संग्रथित हैं। साथ ही वह बीच- बीच में ऐसे दोहों को अनुस्यूत कर देता है, जो लोकशैली में प्रचलित थे। इन प्रचलित दोहों की शैली का यह वैशिष्ट्य सदैव से प्रकट होता आ रहा था। कथ्य की प्रकृति के अनुसार भी दोहों की शैली भिन्न हो सकती है। प्रेम और विरह की कोमल अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए लोकगीतों की शैली का प्रयोग होता रहा है। “संदेशरासक’ में भी दोहों का प्रयोग भाव- द्रवित स्थलों पर ही हुआ है। इन दोहों की शैली बहुत कुछ ब्रजभाषा पर आधारित है।
 
अवह शैली पूर्वी अंचलों में भी लोकप्रिय थी। इस शैली में प्राप्त पूर्वी अंचल की कृतियों में विद्यापति की “कीर्तिलता’, स्फुट प्रशस्तियाँ, सिद्धों के गान और दोहे आते हैं। विद्यापति ने तो “अवहट्ट’ को स्वीकार ही किया है। इस अवह में कुछ पूर्वी रुपों का समन्वय स्वाभाविक है। किंतु कीर्तिलता की भाषा की प्रकृति और संरचना अवह की ही है। विद्यापति अवह भाषा शैली का सचेतन प्रयोग राजस्तुति के संदर्भों में करते हैं। यही एक रुढ़ और परिनिष्ठित शैली के प्रभाव- क्षेत्र की विस्तृति का कारण है। प्रेम- प्रसंगों और गीति- विद्या में विद्यापति लोकभाषा (मैथिली ) का प्रयोग करता है। भाषा का यह दुहरापन एक सीमा तक अब्दुल रहमान में भी मिलता है।
 
भाषा का दुहरापन सिद्ध- साहित्य में भी उपलब्ध होता है। सिद्धों द्वारा रचित दोहों में पश्चिमी अपभ्रंश का अपेक्षाकृत शुद्ध प्रयोग मिलता है। गीत- रचना के वैयक्तिक क्षणों में सिद्ध- कवि पूर्वी भाषाओं के स्थानीय रुपों की ओर झुक जाता है, चाहे शैली की मूल संरचना परवर्ती अपभ्रंश या अवह की ही हो। ब्रजबुलि का आधार भी अवह ही है। इस प्रकार अवह गुजरात से बंगाल, आसाम, उड़ीसा तक स्थानीय प्रभावों से समन्वित मिलता है।
 
अवह शैली एक ओर तो विद्यापति की राज्याश्रित, प्रशस्तिमूलक रचनाओं में प्रयुक्त मिलती है, दूसरी ओर सिद्धों के दोहा कोशों में भी अवह की छाया मिलती है। पीछे वैष्णव आंदोलन के उपस्थित होने पर वही “ब्रजबुलि’ शैली में संक्रमित हो जाती है। इस संक्रमण की स्थिति में पश्चिमी अपभ्रंश के रुप कम होने लगते हैं और मैथिली और बंगला के स्थानीय रुप अधिक उभरने लगते हैं।
 
औक्तिक शैली
 
ब्रजभाषा के रुप तो बहुत पहले उभर चुके थे, पर उसकी शैली के रुप में प्रतिष्ठा कुछ पीछे हुई। अपभ्रंश में ब्रजभाषा के रुप तो लक्षित किए जा सकते हैं, पर शैली की दृष्टि से अपभ्रंश ही प्रचलित थी। वैयाकरणों, साहित्य शास्रियों और सूक्तिकारों के द्वारा संकलित पद्य संभवतः लोक प्रचलित रहे होंगे। इनकी भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश की अपेक्षा, जन प्रवाह से संबद्ध होने के कारण, कुछ आगे की विकास स्थिति का परिचय देने वाली है। परिनिष्ठित और लोकप्रचलित अपभ्रंश शैलियों की सूचना हेमचंद्र ने दी है। ग्राम्य अपभ्रंश शिष्ट या “नागर’ अपभ्रंश की तुलना में ही ग्राम्य थी।
 
प्राकृत जब परिनिष्ठित शैली में ढल गई, तब अपभ्रंश के देशगत भेदों की ओर संकेत किया गया। शौरसेनी या पश्चिमी अपभ्रंश एक व्यापक शैली के रुप में परिनिष्ठित हुई, तब अपभ्रंश के ग्राम्य या कथ्य रुपों के देशगत वैविध्य ध्यान आकर्षित करने लगे ? जिसे हेमचंद्र ने ग्राम्य- अपभ्रंश कहा, उसे काशी के दामोदर पंडित ने “उक्ति’ नाम दिया। वैयाकरण की दृष्टि में परिनिष्ठित और ग्राम्य- भेद शुद्ध भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से थे, किंतु औक्तिक अपभ्रंश एक लोकशैली प्रतीत होती है, जिसका सादृश्य नागर शैली से था।
 
औक्तिक शैली, चाहे लोकसाहित्य से उभरकर ऊपर आने की सूचना देती हो, चाहे शिष्ट शैली में लोक प्रचलित रुपों के प्रयोग की, पर वह है — एक साहित्य में प्रयुक्त शैली। लोक प्रचलित दोहों का प्रयोग और संग्रह, दोनों ही संभावनाओं को पुष्ट करता है। पंडित लोगों की दृष्टि में अनपढ़ औक्तिक रुप खटकते होंगे! पामरजनों की लोकसाहित्यिक उक्तियाँ उन्हें तिलमिला भी देती होंगी ! पर, प्रयोगशील प्रवृत्तियाँ उनको प्रश्रय देने लगी होंगी ! इनके द्वारा व्यक्तिगत वैशिष्ट्य सिद्ध होता होगा ! स्वभावतः इस लोकशैली के अनेक देशगत भेद भी होंगे। जहाँ परिनिष्ठित अपभ्रंश की शैली अपनी परंपरा बनाकर राज्याश्रय खोज रही थी, वहाँ औक्तिक शैली की परंपरा भी बन रही थी, चाहे वह क्षीण ही हो। कालक्रम में पहली शैली शिथिल होती गई और दूसरी शक्ति संग्रहीत करती गई। उक्ति- साहित्य की शैली की सबसे बड़ी शक्ति लोकरुचि के समीप होना है। उक्ति का लेखक भौगोलिक दृष्टि से कोसल- अवधी क्षेत्र का है। फिर भी मध्यदेश के औक्तिक रुपों का परिचय इससे मिलता है। मध्यदेश का यह पूर्वी अंचल पुरानी पंचाली शैली के क्षेत्र से असंबद्ध नहीं कहा जा सकता।
 
उक्ति व्यक्ति प्रकरण की रचना तो पूर्वी अंचल में हुई, पर अन्य औक्तिक रचनाएँ राजस्थान- गुजरात क्षेत्र में हुई। पश्चिमी हिंदी या ब्रजी की पुट इस शैली में होना स्वाभाविक है। उक्ति शब्द, पिंगल शैली की तुलना में, सामान्यजन की बोली या लोकोक्ति का वाचन है। पिंगल जैसी परिनिष्ठित शैलियों के साथ इसका सहअस्तित्व मानना चाहिए। यह कोई भाषा- बोली नहीं, एक लोक शैली ही थी, उसका क्षेत्र राजस्थान- गुजरात से कोसल तक तो प्राप्त रचनाओं के आधार पर निश्चित होता है अन्य क्षेत्रों में भी लोक शैली की रचनाएँ हुई होंगी। इस शैली में राज्याश्रित शैली या उच्च साहित्यिक शैली जैसी कृत्रिमता नहीं है।
 
औक्तिक शैली का वैष्णवीकरण नहीं हुआ। इसकी मूल परिणति लोकोक्ति या नीति- साहित्य में हुई। वैष्णव युग में जो लोकभाषा, शैली और साहित्य की प्रतिष्ठा हुई, उसमें केवल औक्तिक की मूल प्रकृति को खोजा जा सकता है। लोक में जहाँ श्रृंगारोक्तियाँ दोहों के रुप में प्रचलित थीं और जिनका उपयोग “संदेश-रासक’ जैसी कृतियों में भी हुआ, उसी प्रकार नीतिपरक लोकोक्तियों के रुप में भी पद्य या पद्यखंड प्रचलित थे, जिनकी प्रेरणा भावी नीति- साहित्य में प्रतिफलित हुई।
 
पिंगल : राजस्थान
 
डॉ. चटर्जी के अनुसार अवह ही राजस्थान में पिंगल नाम से ख्यात थी। डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को पिंगल अपभ्रंश नाम दिया है। उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा। यह शब्द ब्रजभाषा- वाचक हो गया। गुरुगोविंदसिंह ( सं. १७२३- ६५ ) के विचित्र नाटक में भाषा पिंगल दी कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
 
पिंगल और डिंगल दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं। डिंगल इससे कुछ भिन्न भाषा शैली थी। यह भी चारणों में ही विकसित हो रही थी। इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। पिंगल संभवतः डिंगल की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी और इस पर ब्रजभाषा का अधिक प्रभाव था। इस शैली को अवहट्ठ और राजस्थानी के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है। पृथ्वीराज रासो जैसी रचनाओं ने इस शैली का गौरव बढ़ाया।
 
रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी : यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२ वीं- १३ वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। इस शैली में विदेशी शब्द भी प्रयुक्त होते थे। इस परंपरा में कई रासो ग्रंथ आते हैं।
 
पीछे पिंगल शैली भक्ति- साहित्य में संक्रमित हो गई। इस स्थिति में ओजपूर्ण संदर्भों की विशेष संरचना के भाग होकर अथवा पूर्वकालीन भाषा स्थिति के अवशिष्ट के रुप में जो अपभ्रंश के द्वित्व या अन्य रुप मिलते थे, उनमें ह्रास होने लगा। यह संदर्भ परिवर्तन का ही परिणाम था।
देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, नेपाली, तामाङ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।
अधितकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है)इसे शिरोरे़खा कहते हैं। इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल आइपीए लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।
भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग ‘हू-ब-हू’ उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका कोई ख़ास मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या आइएएसटी।
इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं (उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं — क्योंकि वो सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।
 
 
१) वर्तमान में संस्कृत ,पाली , हिन्दी , मराठी , कोंकणी , सिन्धी, काश्मीरी , नेपाली , बोडो , मैथिली आदि भाषाऒं की लिपि है ।
 
२) उर्दू के अनेक साहित्यकार भी उर्दू लिखने के लिए अब देवनागरी लिपि का प्रयोग कर रहे हैं ।
 
३) इसका विकास ब्राम्ही लिपि से हुआ है ।
 
४) यह एक ध्वन्यात्मक ( फोनेटिक या फोनेमिक ) लिपि है जो प्रचलित लिपियों ( रोमन , अरबी , चीनी आदि ) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है ।
 
५) इसमे कुल ५२ अक्षर हैं , जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं ।
 
६) अक्षरों की क्रम व्यवस्था ( विन्यास ) भी बहुत ही वैज्ञानिक है । स्वर-व्यंजन , कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण , अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं ।
 
७) एक मत के अनुसार देवनगर ( काशी ) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पडा ।
 
८) इस लिपि में विश्व की समस्त भाषाओं की ध्वनिओं को व्यक्त करने की क्षमता है । यही वह लिपि है जिसमे संसार की किसी भी भाषा को रूपान्तरित किया जा सकता है ।
 
९) इसकी वैज्ञानिकता आश्चर्यचकित कर देती है ।
 
१०) भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं ( उर्दू को छोडकर), पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान है । इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है ।
 
११) यह बायें से दायें की तरफ़ लिखी जाती है ।
 
१२) देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल , सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है ।
 
देवनागरी लिपि के अनन्य गुण
 
१) एक ध्वनि : एक सांकेतिक चिन्ह
 
२) एक सांकेतिक चिन्ह : एक ध्वनि
 
३) स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास
 
४) वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता ( ५२ वर्ण , न बहुत अधिक न बहुत कम )
 
५) उच्चार और लेखन में एकरुपता
 
६) उच्चारण स्पष्टता ( कहीं कोइ संदेह नही )
 
७) लेखन और मुद्रण मे एकरूपता ( रोमन , अरबी और फ़ारसी मे हस्त्लिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं )
 
८) देवनागरी लिपि सर्वाधिक ध्वनि चिन्हों को व्यक्त करती है ।
 
९) लिपि चिन्हों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं ( जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है )
 
१०) मात्राओं का प्रयोग
 
११) अर्ध अक्षर के रूप की सुगमता
 
देवनागरी पर महापुरुषों के विचार
 
१) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी , उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है । – आचार्य विनबा भावे
 
२) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है । – सर विलियम जोन्स
 
३) मनव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है । – जान क्राइस्ट
 
४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी । – खुशवन्त सिंह

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